नेक आत्माओं को सराहना भी मानवता की बड़ी सेवा
और तो और विरले ही हैं जो अपने वृद्ध माता-पिता के प्रति भी अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से निभा पाते हैं, और विरले ही माता-पिता भी होते हैं जो अपने संतानों के गृहस्थ आश्रम में पदार्पण के पश्चात उनके प्रति उस हद तक निश्छल रह पाते हैं जितना शास्त्रों में बताया गया है।
कई माता-पिता के जीते जी सन्तान कई तकलीफ झेलता है, नैतिकता के साथ जीवन निर्वहन करते हुए भी कठिन संघर्ष का सामना करते अंदर ही अंदर टूटा हुआ महसूस करता है, माता पिता संपन्न होते हुए भी संपत्ति बटोरे बैठे रहते हैं पर संतानों को निश्छल भाव से, दिल बड़ा करके सहारा नहीं दे पाते। उसी तरह अधिकतर संतान अपने जीवन में स्थायित्व आने के बाद माता पिता के प्रति तिरस्कृत भाव बरतने लगते हैं उन्हें भावनात्मक व आर्थिक सहारा देने से कतराने लगते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है,
अरे भाई! चाहे माँ-बाप को संतान के लिए जितना करना हो, संतान को माता-पिता के लिए जितना करना हो, अपनों को अपनों के लिए जो अच्छा करना हो, या अपने मित्रों, मार्गदर्शकों या किसी के लिए भी कुछ करने का दिल करे, उसकी अहमियत तब कई गुना ज़्यादा होती है अगर उसके जीते जी किया जाये।
कुछ वर्ष पहले मैंने एक उद्धरण भी लिखा था:-
'जो कहना है जो करना है, इसी वक्त कह दे, सही वक्त का इंतज़ार न कर; जब फुरसत होगी तब हालात बदल चुके होंगे जब हसरत होगी तब फितरत बदल चुके होंगे।'
मरने के बाद कौन देख पाता है? हालाँकि स्मृति में किये जाने वाले अनुष्ठानों का भी अपना अलग आध्यात्मिक महत्व है। एक बार की बात है, अल्फ्रेड नोबेल का नाम तो सबने सुना होगा, जिन्होंने विस्फोटक डाइनामाइट का आविष्कार किया और दुनिया के सर्वोच्च सम्मान नोबेल पुरस्कार के जनक रहे।
एक बार उनके जिंदा रहते अखबारों में उनके नाम का झूठा शोक सन्देश छप गया, और हेडलाइंस में अजीबोगरीब वाक्यांश लिखे हुए थे 'डाइनामाइट किंग डाएड' 'मौत का सौदागर नहीं रहा' व वैगेरा वैगेरा... अपने बारे में ऐसी बातें पढ़कर अल्फ्रेड नोबेल के होश उड़ गए। उन्होंने सोचा, "क्या मैं ऐसे याद किया जाऊंगा?"
उन्होंने फिर तभी से अपनी अंतरात्मा को टटोला, गहन चिंतन किया और नोबेल पुरस्कार का जन्म हुआ। दुनिया ने अल्फ्रेड नोबेल को जीते जी एहसास कराया उनमें कितनी बड़ी महानता थी। इसीलिए कहा जाता है अच्छे लोगों के साथ बुरा भी उनके अच्छे के लिए होता है।
महान शख्सियतों के लिए दुनिया में उनके प्रशंसक/ अनुयायी, उनकी जानकारी के बिना जो नेक कार्य करते हैं, उनके आदर्शों को धारक/वाहक होते हैं, और उन्हें असीम सम्मान से नवाजते हैं, वह भी इसी श्रेणी में आता है। ऐसी इनायतें उन्हें दुनिया में उनकी अहमियत का आभास कराते हैं, उनका मनोबल ऊँचा करते हैं, सुखद अनुभूति देते हैं ताकि वे सतत ऊर्जावान बने रहें।
ताज़ा उदाहरण के तौर पर अभी पिछले सप्ताह ही अखिल भारतीय विशाल संगठन प्रेस क्लब ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स के चेयरमैन के जन्म दिन पर देश भर से औपचारिक बधाइयों के अलावा कोलकाता में उनके प्रसंशकों ने फूटपाथ के बच्चों के साथ जन्मदिन पार्टी मनाकर उन्हें आत्मिक आनन्द प्रदान किया।
संस्था द्वारा गोष्ठी के माध्यम से उनके प्रयासों को देश भर के कई चेतन बुद्धिजीवियों द्वारा सराहा जाना एक अनुपम उपहार साबित हुआ। मेरे विचार से दुनिया में ऐसे पहल ज़्यादा से ज़्यादा होने चाहिए। क्योंकि नेक आत्माओं को उनके कार्यों/प्रयासों को दिल से सराहना, उसका प्रचार - प्रसार करना भी मानवता की बड़ी सेवा है। और निश्चित रूप से दुनिया में प्रेम, भाईचारा, एकता और एकत्वं का भाव प्रगाढ़ होता जाता है।
- शशि दीप ©✍
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
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