ठहरी हुई बूँद : पीयूष चतुर्वेदी 'मासूम' की 'एकल हाइकु संग्रह'
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किसी भी साहित्यकार को श्रद्धांजलि देने की सर्वश्रेष्ठ विधि यही हो सकती है कि उसे उसकी रचनाओं के माध्यम से ही स्मरण किया जाए, विशेषकर उसके अधूरे कार्यों को पूर्णता प्रदान कर के। पीयूष चतुर्वेदी ‘मासूम’ के ब्रह्मलीन होने के समय तक अपने हाइकुओं को पुस्तक का स्वरूप प्रदान करने के लिए कार्यरत थे, लेकिन यह पुस्तक अधबीच ही रह गई थी। उनकी प्रथम पुण्यतिथि (28 अप्रैल) के अवसर पर उनके हाइकु उनके परिजनों के हाथों इस पुस्तक के रूप में ढल कर समाज के बीच पहुँचाने का सुष्ठु कार्य संपन्न हुआ है। निस्संदेह वे इस समय जहाँ भी होंगे, उन्हें अपनी इस अधूरी इच्छा के पूरा होने पर अपूर्व शांति की अनुभूति हुई होगी। अस्तु।
पीयूष चतुर्वेदी ‘मासूम’ के ये हाइकु समय-समय पर हाइकु दर्पण, आदि में प्रकाशित होते रहे हैं और मुझे भी उन्हें पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा है। इसलिए प्रत्यक्ष रूप से भले ही मुंबई में रहते हुए भी मेरी उनसे भेंट कभी न हुई हो, लेकिन उनकी रचनाओँ के माध्यम से मेरा परिचय कायम हो चुका था। यह भी संयोग ही है कि उनकी जन्मभूमि इंदौर मेरी कर्मभूमि रही है। मैं वहाँ आरआरकेट में काफी लंबे समय तक कार्यरत रही हूँ। इसलिए इंदौर से काफी जुड़ाव रहा है और यह जुड़ाव यह आत्मीयता इसलिए भी है क्योंकि इंदौर के लोगों की विशेषता है कि वे सहज ही किसी को भी अपना बना लेते हैं और इतनी ही सरलता से, मालवी माटी में रचे-बसे पीयूष जी के कृतित्व में भी मालवी छाप छोड़ी है, जो उनके नाम में मासूम के रूप में जुड़ भी गई है और उसी मासूमियत के साथ उन्होंने ठेठ मालवी आदमी के लहजे में बोरी ठंड की बात की है :
क्रमाँक 124. ठिठक रही। ठंड में ठिठुरती। बोरी ठंड। (पृ.34)
इस पुस्तक में लगभग 400 हाइकु रूपी शब्द-बताशा प्रस्तुत किए गए हैं और इनमें विषयों की विविधता दिखाई देती है। इस जापानी विधा में प्राय: प्रकृति को केंद्र में रख कर रचनाएँ लिखी जाती हैं। लेकिन जब उसे भारतीय मिट्टी में पनपने का अवसर मिला, तब व्यक्ति, समाज, तीज-त्यौहार, धर्म-अध्यात्म, जन्म-मरण, आदि ने भी हाइकु में अपना स्थान बनाया है। पीयूष जी की रचनाओँ में इन्हें यत्र-तत्र-सर्वत्र देखा जा सकता है।
पुस्तक का आरंभ प्रकृति चित्रण से होता है :
1. बया का नीड़। चूजों का झूला घर। टू-इन-वन। (पृ.19)
92. सूरज डूबा। ड्यूटी पर हाजिर। जुगनू वृंद। (पृ.30)
325. व्यापारी वृक्ष। नीलाम करे शाख। नीड़ के लिए। (पृ.59)
132+337. वधू गोधूलि। आशा की जयमाल। क्षितिज लाल। (पृ.35+60)
184. रोक न पाया। गहन घन वृंद। सूर्य दबंग। (पृ.41)
341. दरिया शांत। तैरता रहा रात। पूनम का चाँद। (पृ.61)
343. धुन में स्वयं। फूल पर मस्ताता। दीवाना भृंग। (पृ.61)
405. हवा की लय। सुन नाचे तार पे। वर्षा की बूँदें। (पृ.69)
407. तृप्त हैं पुष्प। अंक में भर कर। लजाई ओस। (पृ.69)
श्रृंगार रस के साथ-साथ विरह के उदाहरण भी अनेक हैं।
287. यूँ तेरे बिन। बूँद-बूँद टपका। आँखों से दिन। (पृ.19)
391. जीता जंग से। हरा गई मगर। तुम्हारी याद। (पृ.19)
ऐसा लग रहा है कि पीड़ित कवि काव्य सृजन नहीं, बल्कि संवाद कर रहा है। व्यक्ति के मनोभाव को दर्शाती हाइकु कहती है :
342+368. नहीं तालाब। अक्सर भर जाती। फिर भी आँखें। (पृ.61+64)
वैयक्तिकता के साथ-साथ सामाजिक सरोकार भी समय-समय पर हाइकुओं में प्रस्फुटित होते रहे हैं। सड़कों की दुर्दशा बारिश में ही ज्यादा पता चलती है।
186. करे गरारे। ये बारिश के मारे। रोड के गड्ढे। (पृ.42)
लोकतंत्र में जनता के बल का आकलन कितना सटीक है, ... देखिए।
190. खास को आम। कभी आम को खास। करे आवाम। (पृ.42)
सर्वहारा वर्ग कैसे अछूता रहता।
196. चाँद पे टंगी। कहीं पसीना सनी। दीन की रोटी। (पृ.43)
406 कोई दे जाता। कोई पोंछता आँसू। सौदा है सब। (पृ.69)
भारत कृषि प्रधान देश है। उसके खेत सुरक्षित न हों तो कवि का आर्तनाद तुरंत सुनाई देता है।
201. कैसा अँधेर। कर्ज ने लीला खेत। मय मुँडेर। (पृ.44)
होरी का दुख आज भी पूर्ववत है।
310 सात दशक। किंतु जस का तस। होरी का कर्ज। (पृ.57)
बढ़ता आतंकवाद देश ही नहीं बल्कि कोमलांगियों को भी नहीं छोड़ रहा है। महिलाओं का प्रयोग मानव बम के रूप में किया जाना चलन का रूप ले चुका है।
308. कोई बताए। तितली को बारूद। किसने बाँधे। (पृ.57)
आज के आतंकवाद के बीज वे रावण में पाते हैं :
79. जले रावण। हर बरस एक। पैदा अनेक। (पृ.28)
रीति-रिवाज का निर्वहन काव्य में करते हुए पीयूष जी कहते हैं कि
259. कागा की शुरु। पितृ-भोज पाक्षिक। टिफिन-सेवा। (पृ.50)
वे रीतियों का विस्तार धर्म के रूप में करते हैं।
123. राम के पाँव। केवट यूँ पखारें। जन्म सँवारे। (पृ.34)
295. स्वर्ण हिरण। छले सीता-सा मन। मायावी बन। (पृ.55)
... और धर्म का विस्तार अध्यात्म में।
209. क्रुध जलद। खोला तीसरा नेत्र। काँपती धरा। (पृ.45)
.. और अध्यात्म का विस्तार दर्शन में।
291. कभी फूल में। ओस-सी है जिंदगी। कभी धूल में। (पृ.54)
300. रेखायें वक्र। तिलस्मी माया घिरा। जीवन चक्र। (पृ.56)
309. वक्त मदारी। बजाते डुगडुगी। हम जमूरे। (पृ.57)
383. हर उम्र में। मिलता नया हल।उसी प्रश्न का। (पृ.66)
जीवन संघर्ष से तपने वाला कवि कहता है :
8. तन जलाया। तब ही जल पाया। घर का चूल्हा। (पृ.19)
282. लड़ रहा हूँ। दैनिक समर में। हारा नहीं मैं। (पृ.53)
365. कोई हो रण। मैं नहीं अभिमन्यु। बेधूँगा व्यूह।(पृ.64)
उसकी आवाज सकारात्मकता के साथ कहती है :
130. उठा गांडीव। कर शत्रुशमन। तू भी है पार्थ। (पृ.35)
लेकिन कभी-कभी कवि भी अवसादग्रस्त होता है :
297. हुई न शुभ। जिंदगी की चादर। रही मैली ही। (पृ.55)
इन सबके बीच कवि अपने आस-पास के संसार को रोचकता और चुटीलेपन के साथ व्यक्त करता है :
104. बहरा न्याय। गूँगे की गवाही। राम दुहाई। (पृ.31)
163. कद दो बित्ता। ताने फिर भी छत्ता। कुकुरमुत्ता। (पृ.39)
313. आकंठ डूबी। चाय के चक्कर में। भोली बिस्किट। (पृ.57)
330. आया सूरज। दुम दबा के भागी। मायावी रात। (पृ.59)
377. पकड़ी चोरी। बहानों की पोटली। बच्चों ने खोली। (पृ.65)
411. बनी फिर माँ। वो तीस साल बाद। बहू आने से। (पृ.69)
दिल पर सहृदय कवियों ने अनगिनत बातें कही हैं, लेकिन उसे विज्ञान की नजर से देखते हुए और उसकी धड़कन सुनते हुए पीयूष जी डॉक्टरी अंदाज में अपने दिल की बात कहते हैं :
232. जीवन चले। जब तक धड़के। ये नन्हा दिल। (पृ.47)
पीयूष जी भाषा की शुद्धता के फेर में नहीं पड़ते थे। उन्हें जिस भाषा के शब्द के प्रयोग से सटीक अभिव्यक्ति संभव लगती, वे उसका उपयोग बेहिचक किया करते थे। टू-इन-वन, टिफिन, वॉल पे स्कैच, आदि ऐसे ही शब्द-प्रयोग हैं, जिनका प्रयोग उनकी रचनाओँ में दिखाई देता है।
उनकी रचनाओँ में अलंकारों का प्रयोग बहुतायत से दृष्टिगत होता है। जैसे,
यमक
25. अतिथि चाँद। छत पर पसरा। सो गया चाँद। (पृ.22)
99. जब भी मिले। दोनों अलग लगे। मैं व मेरा ‘मैं’। (पृ.31)
127. खिलता गुल। नजर में क्या चढ़ा। हो गया गुल। (पृ.34)
389. जीवन बीता। घड़ी-घड़ी देखते। घड़ी की सुई। (पृ.67)
विरोधाभास
346. जिये धूप में। थोड़ी छाँव के लिए। मरे धूप में। (पृ.61)
मुहावरे-लोकोक्तियों का प्रयोग भी प्राय: मिल जाता है :
329. छाछ फूँकता। कहता क्या पोते से। दूध का जला। (पृ.59)
आँख का अंधा गाँठ का पूरा तो उन्हें बहुत प्रिय प्रतीत होता है। नौ मन तेल पर राधा का नाच भी वे दिखाते हैं।
साहित्यकार जिस समाज में रहता है, उसका प्रभाव उस पर पड़ता ही है। मुंबई में बस चुके पीयूष जी पर मुंबईया प्रभाव की झलक उनकी रचना में समंदर और थकेला के रूप में मिलती है :
396. निढाल गिरा। समंदर की गोद। थकेला सूर्य। (पृ.68)
विषयों की विविधता को देखते हुए इनका वर्गीकरण अपेक्षित था। इससे 17 अक्षरी हाइकु का संदर्भ समझने में भी सहायता मिल सकती थी। प्रिंटिंगजन्य त्रुटियाँ भी दिखाई देती हैं, जो संभवत: कवि की पहली बरसी पर पुस्तक के लोकार्पण की हड़बड़ी में हुई होंगी। लेकिन जब इससे हाइकु हाइकु न रह जाए, तब इसकी अनदेखी करना कठिन हो जाता है।
67. साँसें है सिक्का। कर्म का बही-खाता। हिसाब ..? (पृ.27) यहाँ तीसरी पंक्ति में तीन अक्षर ही हैं, जबकि हाइकु का ढाँचा क्रमश: पाँच-सात-पाँच अक्षरों के क्रम में तैयार होता है। इसी तरह हाइकुकार के नाम की सही वर्तनी भी अपेक्षित है। कुछ हाइकुओं को दुबारा से शामिल किया गया है, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी।
इन छिटपुट तथ्यों से ऊपर उठ कर इस पुस्तक को समग्रता में देखा जाए, तो यह पुस्तक मात्र पुस्तक नहीं है। यह उस साहित्यकार को उसके ही कार्य के माध्यम से प्रदत्त ऐसी श्रद्धांजलि है जिसने उन्हें हमारे बीच हमेशा के लिए अमर बना दिया है। हाइकु की ये बूँदे ही हैं जो इस पुस्तक में ठहर गई हैं सदा के लिए। अनंत यात्रा को निकल चुकी आत्मा के काव्य उद्गार हैं :
296. सिमटा मेला। रह गया अकेला। है विदा बेला। (पृ.55)
उन्होंने इसकी तैयारी पहले से ही करनी शुरु कर दी थी।
335. ज्योति की ओर। सुरंग में चलते। गुजरी उम्र। (पृ.60)
349. जीवन क्लांत। खोज रहा आश्रय। मन अशांत। (पृ.62)
362. लादे गठरी। खामोश चल दिए। छले-छले से। (पृ.63)
370. जन्मे तो माटी। सुमन-सा जीवन। मिटे तो माटी। (पृ.64)
उन्हें विदा देते हुए उनके शब्दों यही कहा जा सकता है :
328. रह गया मैं। तन्हा तेरे जाने से। भरी भीड़ में। (पृ.59)
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पुस्तक का नाम : ठहरी हुई बूँदें (हाइकु-संग्रह)
हाइकुकार : पीयूष चतुर्वेदी ‘मासूम’
प्रकाशक : आर.के.पब्लिकेशन, मुंबई
मूल्य : 200/-