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नारी सामाजिक नहीं पारिवारिक मानसिकता की शिकार!


जब भी चार महिलाएं मिलती हैं, वे निश्चित रूप से अपने दैनिक जीवन के बारे में साझा करती हैं। वे अपने संघर्षों, चुनौतियों, कठिनाइयों या नाना प्रकार की और कई बातें करती हैं जिससे उनकी उलझनें थोड़ी कम हो या कम से कम उनका मूड फ्रेश हो। 

कारण यह है कि चाहे आज की नारी कितनी भी सशक्त क्यों न हो, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर न सही पर अधिकतर व्यक्तिगत स्तर पर तो कई समझौते करतीं ही है। भारतीय नारी का जीवन इतिहास अनेक प्रकार के उतार चढ़ावों से भरा रहा है, पर आज की नारी को स्वतंत्र भारत में संविधान के अनुसार पुरूष के बराबर ही स्थान दिया गया है। अनेक उच्च एवं महत्वपूर्ण पदों में आसीन नारी बदलती विचारधारा का सुखद परिणाम है। 

शिक्षा के क्षेत्र में भी हमारी स्थिति में पहले से अभूतपूर्व सुधार देखने को मिला आज आलम ये है की सशक्त नारी अब पूरे जोश में है और चहुँ ओर अपना जलवा बिखेर रहीं हैं अधिकांश क्षेत्रों में नारी पुरूषों से आगे भी निकल गयीं हैं। सदियों की कुरीतियों को रातों-रातों नहीं बदला गया इसके सतत प्रयास जारी रहा और अभी भी जारी है, और आगे भी जारी रहेगा।  

पर अब नारी सामाजिक नहीं बल्कि पारिवारिक मानसिकता का शिकार हो रहीं हैं, जिसके लिये देश और समाज भी क्या कर सकता है? अधिकतर नारी अपने घर परिवार की इज़्ज़त आबरू की परवाह करतीं हैं, इसलिए वे संवैधानिक अधिकारों को दरकिनार कर भावनात्मक पहलुओं को प्राथमिकता देती हैं। इसीलिए आंतरिक रूप से भले कष्ट में रहें पर ऊपर से मुस्कुराती दिखतीं हैं।

हाल ही में एक करीबी सखी से चर्चा के दरमियान एक बेहद अजीब परेशानी के बारे में दिलचस्प मंथन हुआ। अब यहाँ परेशानी को भी दिलचस्प इसलिए कहा गया, क्योंकि जयशंकर प्रसाद जी, कामायनी में कह गए
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।

कहने का तात्पर्य यह है कि नारी, अपनी चुनौतियों को भी मनोरंजन बना लेतीं हैं पर ज़्यादा बखेड़ा करना पसंद नहीं करतीं। हाँ तो मैं बता रही थी कि, एक मित्र साझा कर रहीं थी कि किस प्रकार पुरुष प्रधान परिवारों में अधिकतर महिलाएं अपनी मर्ज़ी से कोई भी निर्णय नहीं ले सकतीं। जैसे उदाहरण के तौर पर मेरी मित्र एक अच्छी पढ़ी लिखी, सशक्त, पी एच डी की हुई विदूषी हैं, पर घर में ठीक से सपोर्ट न मिलने के कारण कुछ वर्क फ्रॉम होम करतीं हैं ताकि उनकी डिग्रियां बर्बाद न जाये। 

और उन्हें आंतरिक संतुष्टि व आत्मविश्वास भी हासिल हो। अब मान लो उन्हें कहीं जाना है एक दो दिन के लिए, तो वे घर की सारी व्यवस्थायें सोच विचार के, निर्णय लेतीं हैं ताकि उनकी अनुपस्थिति में किसी को कोई दिक़्क़त न हो, इसके बावजूद भी पार्टनर से कभी ये जवाब प्रेमपूर्वक नहीं आता की "बहुत बढ़िया, जाओ, तुम्हें जाना चाहिए।" ये जवाब मिलता है, 'तुम देख लो, मतलब जो होगा उसकी जिम्मेदार तुम होगी, मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं पर तुम खुद सोच लो, कैसे करोगी तुम जानो तुम्हारा काम जाने।' 

अब पार्टनर से ऐसे जवाब में कोई भी समझदार स्त्री समझौता ही करना ठीक समझेगी, ताकि उसके निर्णय से उसकी खुद की इच्छा भले मर जाए पर बाकी सब खुश रहें। सच तो ये है कि मुझे स्वयं को भी कभी-कभी यही समझौता करना पड़ता है और शायद अधिकतर बहनों को भी यही परेशानी कम या ज़्यादा होती होगी। अब सोचने वाली बात ये है, इसमें भला समाज के पुरोधा क्या मदद कर पाएंगे, ये तो आंतरिक संघर्ष है। 

पुरुष ये क्यों नहीं महसूस कर पाते कि महिला भी सही व सूझबूझ के साथ निर्णय ले सकती है, उसकी अपनी भी ख़्वाहिशें हैं, सार्थक जीवन जीने की कुछ कोशिशें हैं,  और उस पर बिना कोई बहस बाजी या नीचा दिखाये बैगेर मुहर लगायी जाये, जैसा हर स्त्री प्रायः हर घर में पुरुष के लिए करती है। बस फिर तभी समाज में समानता के अधिकार को आत्मसात करने के उदहारण दिखेंगे अन्यथा सारे अभियान, सभी अधिकार महज कागज़ी ही बने रहेंगे।

- शशि दीप
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
shashidip2001@gmail.com

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