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केशव कल्चर योग और संयोग है : सुरेश खांडवेकर



यह बसंत का अंतिम दिन और नव वर्ष प्रतिपदा का प्रथम दिन 18 मार्च है। ये दिन  हमारे लिए बहुत महत्व रखता है। हमने 17 मार्च शाम 8 बजे से लेकर 18 मार्च शाम के 8 बजे तक 24 घंटे का साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम ऑनलाइन आयोजित किया था। इसी दिन को हम वर्ष प्रतिपदा, गुड़ी पड़वा या नवरात्र का प्रथम दिन कहते हैं। यह रचनाकारों, साहित्यकारों संगीतकारों के 'योग और संयोग' का अनोखा कार्यक्रम था।
 
होली का रंगोत्सव मनाते हुए हम प्रतिदिन श्याम आठ बजे से नौ तक नित्य मिलते रहे। काव्य पाठ और साहित्यिक गोष्ठी करते रहे। साहित्यकार अपनी भूली बिसरी रचनाओं को खोजते रहे।नए पुराने पन्ने पलटते रहे। कभी व्याकुलता कभी आनंद में नई-नई रचनाए लिखते रहे, काटते छांटते रहे, रचते रहे। अब समय आ रहा है रचनाओं में निखार लाने का। उन्हें परिष्कृत करने का। यह संयोग निश्चित रूप से इस साधना पर लाभदाई होगा।

'योग' से कौशल प्राप्त होता है कुशलता मिलती है। काम में सहजता और सरलता आती है। कला में स्वाभाविकता झलकती है। 'योग' या तो बहुत प्रयास से मिलते हैं या 'संयोग' से मिलते हैं। 

आप भाग्यशाली हो की आप को योग की साधना सहज संयोग से मिल रही है। 'अनायास मिल' रही है। अन्यथा साधकों को योग प्रशिक्षण के लिए दर-दर भटकना पड़ता है। इस प्रकार साधना के लिए वर्षों बिताने पड़ते हैं। मंदिरों, पहाड़ो के शिखर पर बड़े-बड़े महात्माओं के पास जाना पड़ता है। तब यह लालसा पुरी होती है। 'केशव कल्चर' के माध्यम से यह सब सबको सहज मिल रहा है।

सरल भाषा में आत्मोन्नति ही योग है। योग दर्शन में चित्त की प्रवृत्तियों को एकाग्र करने को योग कहां गया है। अर्थात चंचल और ज्ञानवान इंद्रियों को वश में करते हुए किसी उद्देश्य की प्राप्ति करना योग है। वास्तव में जो प्रभावशाली इंद्री होती है वह शरीर और मन का नेतृत्व करती है। यही स्वभाव कहलाता है इस स्वभाव को बदलना ही योग कहलाता है।

दूसरे तरह से यह भी कह सकते हैं कि अपने आपको किसी नई स्थिति में, नए वातावरण में, आत्मानुकूल परिवेश में ले जाना योग है। सांसारिक जंजाल से थोड़ी देर के लिए ही सही छूट जाना योग है। स्वभाव को रोकना योग है।

'केशव कल्चर ऐसा माध्यम' बन चुका है जिससे हम अपने दैनिक जीवन में परिवर्तन देखने लगे हैं। जो रसोई में उलझी  महिलाएं हैं वह भी रचना साहित्य में लग जाती है। एक प्रारंभ तो है। धीरे-धीरे वैचारिक विकास होगा धीरे-धीरे कल्पना शक्ति बढ़ेगी धीरे-धीरे अध्ययन बढ़ेगा तो यह रचनाकार परिवर्तन लाएंगे।

शब्दों का चयन, विचारों की मर्यादा, अध्ययन, प्रशिक्षण प्रस्तुतीकरण, आत्म बल यह सब धीरे-धीरे विकसित होगा। यह भी एक योग साधना है जो आप लोगों को संयोग से मिली है। हमारा मिलना जैसे ईश्वर प्रदत्त भाग्य है। इस अनायास मिले संयोग का सब लोग लाभ उठाएं और ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ें तो हमारा उद्देश्य सफल होगा। यह साहित्यकारों के अंकुर धीरे-धीरे पल्लवित होकर पुष्पित और फलित होना चाहिए। यह केशव कल्चर का आग्रह है।
इस कड़ी में संगीतकारों को भी जोड़ने का प्रयास कर रहा हूं। निश्चित रूप से रचनाकारों को प्रेरणा मिलेगी घर में परिवार में परिवेश में अच्छा वातावरण पनपेगा। 

'केशव कल्चर' अभिव्यक्ति की प्रशंसा करता है स्वतंत्रता चाहता है। अभिव्यक्ति से ही मन, बुद्धि, विवेक और विचारों के उद्गार आकाश मैं फैलते हैं और चारों तरफ दृढ़ संकल्पो ‌का प्रचार प्रसार होता है। संकल्प को बल मिलता है। रचनाकारों को चाहिए कि भारतीय सांस्कृतिक धरोहर के मूल्यों को समझे। हमारे महापुरुषों के बोल, साधना और पराक्रम को देखे समझे और उसमे अनुसंधान करें।
हमारे भीतर ही ब्रह्मांड है हमारे भीतर बहुत शक्तियां छुपी हुई है उन शक्तियों को पहचान का प्रयत्न करें। शरीर का एक-एक अंग कितना विहंगम अप्रत्याशित और शक्तिशाली है इसे पहचान के लिए अगर थोड़ा सा समय निकालेंगे आपका आत्मिक बल बढ़ेगा और अभिव्यक्ति की धार तेज होगी।

श्री कृष्ण के बाल रूप को हमने पहचान का प्रयत्न किया। धीरे-धीरे जैसे-जैसे श्री कृष्ण बड़े होते जाएंगे । उन्होंने जीवन में विविध रूप लिए। वे सोलह कला में निपुण थे । यदि वे बंशीधर थे तो चक्रधर भी थे। शंखनाद भी करते थे। दुष्टों के संहारक भी थे। मित्रों के साथ सारथी भी थे। तो गरीब सहपाठी मित्र सुदामा के पारखी भी थे। जितने रंग होते हैं उतने स्वरूपों में श्री कृष्णा दिखाई देते थे सही मानव में इंद्रधनुषी ही थे। ऐसा ही हमारा जीवन इंद्रधनुषी या नौरंगी होना चाहिए। जीवन की उदासीनता समाप्त हो जाएगी।
उनकी प्रत्येक भूमिका मनोजक होते हुए भी साहसपूर्ण थी। आध्यात्मिक शक्ति के पुंज थे। वे एक दिव्य पुरुष के रूप में परिणीत हुए थे। योगेश्वर कृष्ण कहलाए थे। हम भी मिल कर उत्तरोत्तर पढ़ने जाएं, बढ़ते जाएं यही कामना है।
सभी को प्रणाम।

- सुरेश खांडवेकर
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