हिन्दी विभाग में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन
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नागपुर। साहित्य राष्ट्र का प्रहरी होता है। राष्ट्रबोध के निर्माण और निर्देशन में साहित्य की अतुलनीय भूमिका रही है।साहित्यकारों ने अपनी लेखनी से भारत के इतिहास बोध को जाग्रत करने का महान कार्य किया।
उक्त विचार नगर की प्रख्यात विदुषी डॉ. वंदना खुशलानी ने "हिन्दी साहित्य में राष्ट्रबोध के स्वर" विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन सत्र में व्यक्त किए। कार्यक्रम का आयोजन सांस्कृतिक कार्य विभाग, महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी, मुम्बई एवं हिन्दी विभाग, राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था।
डॉ. खुशलानी ने जोर देकर कहा कि क्रांति का अर्थ रक्तपात करना या अत्याचार करना नहीं है, वरन् अन्यायपूर्ण शासन को उखाड़ फेंकने का नाम क्रांति है। दुर्भाग्यवश क्रांतिकारियों के योगदान का ठीक से आकलन नहीं किया गया। पर संतुष्टि इस बात की है कि देश के जन-जन में हमारे बलिदानी क्रांतिकारियों के प्रति पूर्ण आदर का भाव आज भी विद्यमान है।
कार्यक्रम के अध्यक्ष नागपुर विश्वविद्यालय के मानविकी संकाय के अधिष्ठाता डॉ. दत्तात्रय वाटमोड़े ने कहा कि हिन्दी साहित्य में राष्ट्रबोध के स्वर की चर्चा होना समयोचित पहल है। राष्ट्रीय भाव हमारे रग-रग में संचरित है।भारतबोध को जन-मन में स्थापित करने का काम हिन्दी साहित्य ने किया है। आभार ज्ञापित करते हुए संगोष्ठी के संयोजक हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. मनोज पाण्डेय ने कहा कि राष्ट्रबोध हमारी का अस्मिता का परिचायक है।
हिन्दी कविताओं में राष्ट्रबोध के स्वर
पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर के हिन्दी विभाग के प्राध्यापक डॉ.गिरिजा शंकर गौतम ने कहा कि भारतीय परम्परओं और सांस्कृतिक पहचान को निरन्तर बनाए रखने का कार्य ही राष्ट्रबोध है। हमें अपनी सोच में भारतीय चिंतनधारा को विकसित करना होगा।
प्रमुख अतिथि राजमाता सिंधिया शासकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, छिन्दवाड़ा के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो.सीताराम शर्मा ने प्राचीन वांग्मय का उदाहरण देते हुए कहा कि राष्ट्रबोध के स्वर हमारे साहित्य में वैदिक काल से विद्यमान हैं।
समूचे भारतीय साहित्य में राष्ट्रीय चेतना का भाव मुख्य रहा है। सत्र का अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. शिवप्रसाद शुक्ल ने कहा कि राष्ट्रबोध के स्वर का आधार भाषा और लिपि है। स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, डॉ.बाबा साहब आम्बेडकर आदि भारतीय मनीषियों ने अपने व्याख्यानों और पुस्तकों में भारत की राष्ट्रीयता को व्यक्त किया है। आज भूमंडीकरण से ग्रस्त समाज में राष्ट्रबोध का भाव विकसित करने की आवश्यकता है।
काव्येत्तर साहित्य में राष्ट्रबोध के स्वर
दूसरे सत्र में अतिथि वक्ता डॉ. राजेंद्र मालोकर ने कहा कि हिन्दी भाषा में रचित निबंधों, कहानियों, नाटकों में राष्ट्रबोध का स्वर प्रखरता से व्यक्त हुआ है। वीएमवी महाविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ.आभा सिंह ने अपने वक्तव्य में कहा कि 1857 की क्रांति के बाद हिन्दी के साहित्यकारों ने स्वतंत्रता के लिए लोगों को जागृत करने के उद्देश्य से विविध विधाओं में दिशा-दर्शक लेखन किया। कला व वाणिज्य महाविद्यालय, आर्वी के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. श्याम प्रकाश पांडे ने कहा कि नाट्य विधा में सबसे अधिक सांस्कृतिक एकता का बीज समाया हुआ है। अहमदनगर कॉलेज के डॉ. सातप्पा चह्वाण ने कहा कि राष्ट्रीय आकांक्षाओं से परिपूर्ण साहित्य ही राष्ट्रबोध का साहित्य कहलाता है।
सत्र की अध्यक्षता करते हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के गांधी और शांति अध्ययन विभाग के अध्यक्ष प्रो.मनोज राय ने कहा कि साहित्य की विविध विधाओं के माध्यम से साहित्यकारों ने भारतबोध कराने का महान कार्य किया है। पराधीनता के दौर में आत्म-विस्मृति को दूर कर आत्म-गौरव जागृत करने का काम हिन्दी साहित्य ने किया है।
हिन्दी पत्रकारिता में राष्ट्रबोध का स्वप्न
सत्र के अतिथि वक्ता जे. एम. पटेल महाविद्यालय, गोंदिया के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. मस्तान शाह ने कहा कि लेखक समाज का सजग प्रहरी होता है। हिन्दी पत्रकारिता का हेतु राष्ट्र का जागरण करना रहा है। सिंधु महाविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. सपना तिवारी ने कहा कि पत्रकारिता का उद्देश्य मात्र समाचार देना नहीं वरन् समाज को जागरूक बनाए रखना भी रहा है। जनता का जाग्रत कर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में अपने कर्तव्य का बोध कराने का काम उस समय के पत्रकारों ने किया। पी. डब्ल्यू. एस. महाविद्यालय, नागपुर के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. सुमेध नागदेवे ने कहा कि पत्रकारों ने सदैव देश की एकता के लिए कलम चलायी। सभी मत, पंथ, सम्प्रदाय को मनानेवालों को देश की स्वतंत्रता के लिए संगठित होने का मंत्र दिया।
इस सत्र के प्रमुख अतिथि शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, छिदवाड़ा के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. लक्ष्मीचंद ने कहा कि पत्रकारों से अंग्रेज डरते थे, क्योंकि वे सत्य के आग्रही थे। अध्यक्षीय उद्बोधन में वरिष्ठ क्रांतिकारी लेखक डॉ. राजेंद्र पटोरिया ने कहा कि स्वतंत्रता पूर्व पत्रकारों का ध्येय स्वतंत्रता प्राप्ति था। अनेकों अत्याचार सहकर भी उन्होंने स्वतंत्रता का पथ नहीं छोड़ा, न ही किसी प्रलोभन में फंसे।
इस अवसर पर उद्घाटन सत्र के अतिथि प्रख्यात ललित निबंधकार डॉ. श्रीराम परिहार, समाजसेवी डॉ. गिरीश गांधी और विश्वविद्यालय के प्र-कुलगुरू डॉ. संजय दुधे के हाथों संगोष्ठी पर केंद्रित पुस्तक 'साहित्य में राष्ट्रबोध के स्वर', संगोष्ठी स्मारिका तथा विद्यार्थियों की पत्रिका 'विद्यार्थी दृष्टि' का विमोचन किया गया। सत्रों का संचालन डॉ. नीलम वैरागड़े, प्रा. जागृति सिंह तथा डॉ. नीलम विरानी ने किया एवं डॉ. एकादशी जैतवार, डॉ. सुमित सिंह, डॉ. लखेश्वर चंद्रवंशी ने आभार व्यक्त किया।