बच्चों के संस्कार का मूल आधार माँ होती है : डॉ हंसा शुक्ला
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नागपुर/भिलाई। माँ के आचार-व्यवहार का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर होता है। इसलिए तो अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदने का ज्ञान माँ के गर्भ से प्राप्त कर लिया था। बच्चों के संस्कार का मूल आधार माँ होती है। इस आशय का प्रतिपादन डॉ हंसा शुक्ला, प्राचार्या, स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती महाविद्यालय, हुडको, भिलाई, छत्तीसगढ़ ने किया।
विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में आयोजित 145 वीं (18वीं) राष्ट्रीय आभासी गोष्ठी में वे मुख्य अतिथि के रूप में अपना मंतव्य दे रही थी, जिसका विषय था ‘संस्कार का मूल आधार मां'।
विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज के सचिव डॉ गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने गोष्ठी की अध्यक्षता की। डॉ शुक्ला ने आगे कहा कि हर माँ बच्चों को न केवल संस्कारवान बनाती है बल्कि अपने आचरण से उसे संस्कारी बनने की प्रेरणा देती है। भक्त प्रहलाद और ध्रुव आज भी अपनी माँ के दिए हुए संस्कारों के कारण अमर हैं । माँ सृजनकर्ता है। अतः संस्कार युक्त बच्चों का सृजन कर माँ संस्कारित समाज व राष्ट्र की स्थापना कर सकती है ।
गोष्ठी की मुख्य वक्ता डॉ. कविता अरुण सोनवणे-पवार, उप शिक्षिका, ज्ञानदीप बहुउद्देशीय विद्या प्रसारक मंडल तामसवाडी संचालित सार्वे - बाभले माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक विद्यालय, पारोला, जलगांव, महाराष्ट्र ने अपने उद्बोधन में कहा कि भारतीय संस्कृति में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। संस्कार व्यक्ति के जन्म से पूर्व अर्थात माँ की गर्भधारण के समय से लेकर मृत्यु तक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। एक माँ अपनी संतान को सुसंस्कार देकर उसे सर्वोत्तम लक्ष्य तक पहुंचाने में सहायक होती है।
डॉ कविता ने आगे कहा कि प्राचीन काल की माता कौशल्या, कैकेय और माता सुमित्रा के आदर्श एवं महान पुत्र श्री राम, भरत और लक्ष्मण एवं 16 वीं शताब्दी में महाराष्ट्र में मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज को अपनी प्रतिभा एवं दूरदर्शिता से संस्कार करने वाली राजमाता जिजाऊ व स्वामी विवेकानंद को उत्तम संस्कारों से संपन्न करने वाली माता भुवनेश्वरी तथा महाराष्ट्र के आदर्श अध्यापक पांडुरंग सदाशिव साने गुरुजी की मां यशोदाबाई आदर्श माता के उत्तम उदाहरण है।
वर्तमान परिस्थितियों में आधुनिक माँ को भी इस सूचना प्रौद्योगिकी के युग में अपने घर – कामकाज, नौकरी के साथ स्वयं अनुशासित होकर बच्चों को भी उत्तम संस्कार देने की परम आवश्यकता है। परिणामत: राष्ट्र विकास एवं वैश्विक दृष्टि से यह महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है।
रतिराम गढेवाल, सहायक प्रबंधक, स्टील प्लांट, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने कहा कि, माता के समान कोई छाया नहीं, कोई सहारा नहीं, कोई रक्षक नहीं तथा कोई प्रिय नहीं है। माँ सदा अपने पुत्र के हित की कामना करती है। माँ दिव्य गुणों, संस्कारों द्वारा संतान का भविष्य संवारती है। इस अवसर पर श्रीमती अनिता मंदिलवार, सरगुना, छत्तीसगढ़ ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए संस्थान के सचिव डॉ गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश ने अपने उद्बोधन में कहा कि माँ से बढ़कर तो कोई रिश्ता नहीं। माँ की महिमा अनंत है। माँ सर्जक होने के साथ बालक की प्रथम गुरु होती है। माँ से ही सृष्टि का विस्तार है। वह त्याग, तपस्या और बलिदान की मूर्ति होती है। माँ अपने बालक को शिष्टाचार के साथ सुसंस्कृत बनाती है। गोष्ठी का शुभारंभ डॉ सोनाली चैन्नेवार रायपुर, छत्तीसगढ़ की सरस्वती वंदना से हुआ। स्वागत भाषण सुश्री नम्रता ध्रुव, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने दिया।
गोष्ठी में अनेक मान्यवरों की उपस्थिति रही। गोष्ठी का सफल व सुंदर संचालन प्रा. रोहिणी डावरे, अकोले, अहमदनगर, महाराष्ट्र ने किया तथा श्रीमती पुष्पा श्रीवास्तव 'शैली', रायबरेली, उत्तर प्रदेश ने आभार प्रदर्शित किए।