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पुरस्कार के बहाने...


हाल ही में महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ने वर्ष २०२०, २१, २२ के विधा पुरस्कारों की घोषणा की। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मेरे निबंध संग्रह 'मुदित मन' को अकादमी ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल स्वर्ण पुरस्कार से सम्मानित किया।
इसके पूर्व व सन् २०१९ में 'रवि रश्मियां' निबंध संग्रह को भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल स्वर्ण पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 

दूसरी बार पुनः रामचंद्र शुक्ल स्वर्ण पुरस्कार प्राप्त कर सच में मन मुदित हुआ ।कारण अपने विद्यार्थी जीवन से ही मैं शुक्ल जी के निबंधों की अत्यंत प्रसंशक रही हूं श्रद्धा भक्ति, क्रोध जैसे विषयों को पढ़ते पढ़ते मन प्रसन्न हो जाता था और पूरी कक्षा स्तब्ध!

इस पुरस्कार की घोषणा के पश्चात जब अपने करीबी लोगों, आस पड़ोस, जान पहचान वालों को सोशल मीडिया के माध्यम से सूचना मिली तो आज के युग के चलन के हिसाब से कुछ अंगूठे, कुछ बधाई संदेश, कुछ थोडे से आत्मीय संदेश, मिले तो कहीं से बिल्कुल कुछ नहीं, इसमें अफसोस की कोई बात भी नहीं कारण अब सब इसी के आदी हो चुके हैं, हम भी दूसरों को इसी तरह शुभकामनाएं देते हैं। 

वह युग अब कहां ,जब लोग शुभ अवसरओं पर घर जाकर बधाईयां देते थे, मुंह मीठा करते थे, गले लग जाते थे। दूसरों की खुशी में दिल से सम्मिलित होते थे। वह सुख सब छिन ही गया है। अस्तु समय बदलता है तो स्वाभाविक रूप से उस बदलाव को स्वीकार करना पड़ता है।

फिर भी यदि कोई ऐसी बधाई दे, मन से दूसरे की खुशी में सम्मिलित हो तो उस आनंद की कोई सीमा नहीं होती। यहां इन सब बातों का जिक्र इसलिए कि कभी कभी इन सबसे अलग भी कुछ होता है जो हमें आश्चर्य के साथ साथ खुशी भी देती है ।कुछ ऐसा जिसकी हमने कल्पना तक न की हो।

हुआ यूं कि हमारे पूर्व पडौसी जो अब कहीं दूसरी जगह रहने चले गये हैं, को जब इस पुरस्कार के संबंध में ज्ञात हुआ तो बडी़ ही आत्मीयता से उन्होंने फोन पर बधाई दी, मन खुश हुआ। दूसरे दिन फिर उनका फोन आया। कल सात बजे आप मंदिर में आईये। मैंने पूछा क्या प्रोग्राम है? संक्षेप में उन्होंने इतना ही कहा एक छोटा सा कार्यक्रम है और फोन रख दिया।

उन्होंने जिस मंदिर का जिक्र किया था वास्तव में वह हमारे निवास बजाज नगर के प्रसिद्ध कस्तूरबा भवन के बाजू में स्थित है जो ज्ञानेश्वर मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। 

मुख्य रूप से इस मंदिर में संत ज्ञानेश्वर महाराज की बडी भव्य दिव्य मूर्ति स्थित है, इसके अतिरिक्त अन्य देवी देवताओं की भी मूर्तियां हैं ।प्राय: मंदिर में प्रवचन, भजन, व्याख्यान,कीर्तन अथवा सामाजिक आयोजन होते रहते हैं। हम सन् १९९७ में बजाज नगर रहने आए तबसे लगातार मैं इस मंदिर के विभिन्न कार्यक्रमों में श्रोता के रूप में सम्मिलित होती रही। 

इस दरम्यान वहां के कार्यकर्ता व बजाज नगर के अन्य नागरिकों, महिलाओं से अच्छी पहचान होती रही ।यहां मैं एक बात विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगी कि ये सब नागरिक इतने अनुशासन बद्ध हैं कि समय से आते हैं व कार्यक्रम में पूर्ण शांति बनाए रखकर समाप्ति पर चुपचाप चले जाते हैं,न तो कोई बहस न चर्चा न हल्ला।

अस्तु। इन भाई ने संध्या समय मंदिर में आने का निमंत्रण दिया तो उत्सुकता बढी़,क्या कार्यक्रम होगा मंदिर में? मैं जानकर अवाक् थी कि वहां मेरे सत्कार का कार्यक्रम आयोजित किया गया है। मैं मंदिर गई।अत्यंत सादगी से किंतु आत्मीय भाव से सधे हुए वातावरण में सत्कार कार्यक्रम संपन्न हुआ। 
और विशेष रूप से हिंदी भाषा में कार्यक्रम का संपूर्ण संचालन श्रीमती  मेघा गोवर्धन द्वारा किया गया, अध्यक्ष महोदय ने भी हिंदी में अपने विचार रखे। अन्यथा मंदिर के सभी कार्यक्रम मराठी भाषा में ही संपन्न होते हैं, मैंने पुरस्कार, अपनी पुस्तक 'मुदित मन' व साहित्य के संबंध में संक्षेप में अपने विचार रखे व कुल आधे घंटे में पूरा कार्यक्रम संपन्न हुआ।

कार्यक्रम संपन्न होते ही जिन भाई साहब ने मंदिर कमेटी की अनुमति से इस कार्यक्रम का आयोजन किया था, वे आए और जिस पुस्तक को पुरस्कार मिला है, तथा अभी हाल में प्रकाशित मेरे संस्मरण संग्रह वो डेढ़ दिन' को अलका पलटा कर देखा, फिर कीमत पूछी। 

मैंने जब ऐसे ही पुस्तक भेंट देने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने बडी़ ही सटीक बात कही 'नहीं, यह लेखक का अधिकार है, उसकी लेखन प्रतिभा का सम्मान है, आज तो पुस्तक की कीमत देनी ही चाहिए और पुस्तक की कीमत स्वयं देखकर उन्होंने टेबल पर पैसे रख दिए। उनका अनुकरण करते हुए अन्य लोगों ने भी पुस्तक की कीमत देकर उसका सम्मान किया।

इस घटना का उल्लेख करने का उद्येश केवल इतना ही कि 'लेखक की प्रतिभा का,उसकी मेहनत का सम्मान होना चाहिए,कद्र होनी चाहिए जैसे विचारों द्वारा उन्होंने एक उदाहरण प्रस्तुत किया था ।जिसका आज के डिजिटल युग में अभाव है।

यहां एक और घटना का उल्लेख करना चाहूंगी। कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात दूसरे दिन जब इतनी शीघ्रता से सक्रिय होकर उत्कृष्ट कार्यक्रम आयोजित करने के लिए धन्यवाद, आभार प्रदर्शन के लिए मैंने फोन किया तो उनके शब्द, 'अरे इतना फार्मल मत होईये। 

पड़ोस में इतनी प्रतिभा हो और उसे समाज के समक्ष पेश न किया जाय, यह कैसे हो सकता है? मैं अवाक् नि:शब्द केवल उनके विचार सुन रही थी।मन अपने आप से प्रश्न कर रहा था, कितने लोग आज इस दुनियां में हैं जो बिना किसी प्रसंशा, अपेक्षा, धन्यवाद की इच्छा के दूसरों की प्रतिभा को समाज के सामने रख कर उसका सम्मान करें? समाज को जाग्रत करने का कार्य करें? लेखक को प्रोत्साहित करें?

ये महान व्यक्ति और कोई नहीं, ज्ञानेश्वर मंदिर के भूतपूर्व सचिव  भक्त, निरपेक्ष समाज सेवक श्री रविन्द्र कासखेडी़कर जी हैं।
वास्तव में उस दिन का सम्मान मुझे बहुत कुछ सिखा गया, समझा गया। मैं नतमस्तक हूं ऐसी महान प्रतिभा के सम्मुख।

- प्रभा मेहता,
नागपुर, महाराष्ट्र 
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