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उपलब्धियों और सम्मान को बोझ समझना मानसिक अवसाद का प्रमाण!


इंसान जब एक सार्थक जीवन जीने की चाह रखता है तो अपनी काबिलियत, अपने उद्देश्य व ज़रूरत के मुताबिक अपने पसंदीदा क्षेत्र का चुनाव करता है। फिर उसे अपनी मंजिल तक पहुँचने के लिए, अपने सपने को, अपनी ख़्वाहिशों को सच में बदलने की ज़िद रखनी होती है। 

मेहनत, लगन व अनुशासन से अपना सौ प्रतिशत देते हुए आरामपरस्ती से बाहर निकलना पड़ता है, कई मनोरंजनों का त्याग करना पड़ता है, उस हद्द तक जब रातों की नींद को भी प्यार से फुसलाना पड़ता है, प्रारंभिक असफलताओं को मुस्कुराते हुए स्वीकारना पड़ता है।

और तब कहीं जाकर शुरू होता है कामयाबियों का सिलसिला। अब ये कामयाबी क्या है और कैसे पता चलता है? अरे भाई! सीधी सी बात है दुनिया में आपके प्रयासों की, आपकी प्रतिभा की, आपके कार्यों की चर्चा होना, उसकी उत्कृष्टता का उस क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा सराहा जाना, मान-सम्मान यश अर्जित करते हुए प्रगति पथ पर आगे बढ़ते जाना और स्वयं के भीतर संतुष्टि व आत्मविश्वास की अनुभूति होना। 

अब कठिन परिश्रम के बाद यह वह दौर आया होता है जब किसी को अपनी सफलता को संभालने के लिए बेहद सतर्क रहने की जरूरत होती है। क्योंकि दुनिया में अक्सर देखा जाता है कि ज़रा सी ऊंचाई प्राप्त करते ही इंसान हवा में उड़ने लगता है। ऐसी प्रवृति बिल्कुल ठीक नहीं, बेहद नुकसान करता है, इंसान को छोटा साबित करता है, और इंसान अपनी फ़जीहत खुद करवा बैठता है, क्योंकि उसके अंदर अहंकार जो हावी हो जाता है।

उपरोक्त विश्लेषण को मैं एक उदाहरण देकर स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहूँगी, अन्यथा न लें। एक वरिष्ठ साहित्यकार/पत्रकार ने पिछले दिनों "फेसबुक पटल पर एक पोस्ट लिखा 'घर में इकट्ठे हो गये स्मृति चिन्हों और फ्रेम वाले सम्मान पत्रों का क्या करूं। बच्चे उनसे खेलते नहीं और कबाड़ी लेते नहीं।' मैंने टिप्पणी की महोदय! आपको कामयाबी न मिलती, मान-सम्मान न मिलता तो आप कहते, मेरी प्रतिभा को दुनिया ने पहचाना नहीं, और जब मिल रहा है तो आपको उसकी क़द्र नहीं, सम्मान पत्र आपको बोझ लग रहा है। 

अब आगे आप यशवर्धन की लालसा भले न रखें पर अभी तक जो मिला वह तो आपकी कमाई हुई पूंजी है।' वे मुझसे उम्र में बहुत बड़े होंगे पर मुझे उस पोस्ट में टिप्पणी करना सामाजिक सरोकार के दृष्टिकोण से जरूरी लगा, पर मेरी टिप्पणी से उन्हें लगा कि मैंने शायद यशवर्धन का स्वाद अब तक नहीं चखा इसलिए ईर्ष्यावश उन्हें समझा रही हूँ। और यहीं पर मैंने उन्हें ईश्वरीय इशारे से पकड़ लिया कि उनके अंदर अहंकार समाहित हो चुका है। और इसीलिए हर कायदे की बातों में उनकी विपरीत प्रतिक्रिया परिलक्षित हो रही थी। 

फिर वहां अपनी सकारात्मक बात रखने की कोशिश करना मुझे अपनी एक और बेवकूफी लगी। इसीलिए यही कहने में समझदारी थी कि 'मैं गलत हूँ आप सही हो!' ईश्वर हम सबको सदबुदधि दे। अंत में उनके अहंकार की पराकाष्ठा देखिये

'महोदया, हम बूढ़े लोग हल्की-फुल्की बात करके दिल बहला लेते हैं।आप कृपया दिल पर न लें‌। ईश्वर आपको यशस्वी बनाए कि आपको खूब सम्मान मिले और बांटे भी। लेकिन मेरे लिए कोई सम्मान न रखना।' उस पर मेरा जवाब 'महोदय! एक और सम्मान तो आपको दे ही दिया मैंने, आपके इस पोस्ट पर टिप्पणी करके! अब इसे भी संभावने का बोझ बढ़ गया। अपनी टिप्पणी यहीं समाप्त करती हूँ नमस्कार।'

खैर, जो हुआ अच्छे के लिए हुआ। उपरोक्त संवाद से यह समझना आवश्यक है कि मनुष्य मेहनत लगन के फलस्वरूप यश प्राप्त करता है लेकिन उसे सहेजना और उपलब्धि को अहंकार रूपी उसके स्वादिष्ट किंतु जहरीले भोजन का सेवन न करने देना अति आवश्यक है। 

बहुत से एहतियात बरतना ज़रूरी है। क्योंकि ईश्वर से लगातार जुड़े रहने से इस बात का भान होता है कि उपलब्धि मिलते ही आत्ममुग्धता ऐसे हावी होना शुरू होता है कि बस इंसान का अहंकार बढ़ने लगता है। 

वो सोचता है मैंने कुछ पाया है अब मैं आम नहीं खास हूँ, साधारण नहीं असाधारण हूँ। परंतु ये गलत है। आसमान में उड़ान भरते हुए भी जमीन से जुड़े रहना, ज़मीर की हिफाज़त करना ही दुनिया में खूबसूरत इंसानी ख़ूबियों की मिसाल कायम करते हैं।

- शशि दीप
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
shashidip2001@gmail.com

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