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माँ...



क्या लिखूं मैं, माँ की अज़मत पे।
ना बयां कर सकेगी ये कलम,
उसकी अज़ीम शखशीयत
जिसके कदमों में डाल दी है
कुदरत ने जन्नत की मिल्कियत।।

कैसे कहूं कि क्या है मैहर उसकी,
की जो मैं मुस्कुराऊं
तो  ठंडक उसके कलेजे को पहुंचे।
मैं दर्द से करहाऊं तो आँख उसकी छलके।।

धूप की तपिश भी फीकी जान पडती है,
जब वो आँचल फैलाकर मेरे रूखसार पे रखती।
जो निकलती हुं मैं तन्हा घर से बाहिर,
दुआओं का एक काफिला भी साथ रखती है।।

कुछ इस अंदाज़ से वो मेरी खताओं को बक्श देती है।
एक  माँ है जो मुझे कभी बुरा नहीं कहती है।।
ऐ मेरे रब सलामत रखना हमेशा मेरी माँ को,
एक वो ही है जिसकी दुआ कभी रद्द नहीं होती।

- डॉ. तौकीर फातमा ‘अदा’
कटनी, मध्यप्रदेश
काव्य 4675511416568095750
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