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छलकपट..

                 

   छलकपट से भरी है दूनिया
   दो दिन का रैन बसेरा।
   तेरा मेरा क्यों करता है
   जाएगा एक दिन अकेला।
   
   कोई बनाएं महल कोई बनाएं
   कुटिया कोई कांटे अपना जीवन
   खुले आसमां के नीचे।
   
   माया मोह की गठरी बांधे 
   भागे हर इंसान अकेला।
   भोलेपन का मुखौटा पहन घूमते
   कई छलिया।
   
   आगे बढ़ने की रफ्तार रखना धीमें
   जल्दी की चाह में फंसना ना कभी
   किसी के जाल में।
   
   धीरे धीरे बढ़ा रे कदम धीरे धीरे 
   सबकुछ होता क्यों ना समझे नादान।
   जरूरत सभी की है रोटी कपड़ा और
   मकान।
   
   सोच समझकर कर जीना साथी क्या
   खोया क्या पाया कौन से कर्म से अपनी
   किस्मत जगाया सारा लेखा-जोखा का
   हिसाब तुझे वहां जाकर देना है।
   
   फिर क्यों ना समझे इंसान इतनी सी बात।
   हमेशा कुछ भी नहीं रहेगा फिर क्यों भागे
   काम मद लोभ के पीछे।
     
 - सविता शर्मा, मुंबई
काव्य 8023233726731780040
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