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तथ्य और सत्य का अन्वेषण है शोध - डॉ. पुनीत बिसारिया



नागपुर। भारत की पहचान शाश्वत की खोज करनेवाले देश के रूप में रही है।मनुष्य ने अपनी मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के लिए जो आविष्कार किए हैं वह भी एक तरह का शोध है। प्राचीन काल में लिखी गई टीका, आलोचना, शास्त्रार्थ आदि शोध का प्रारम्भिक स्वरूप है।यह बात बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर पुनीत बिसारिया ने कही। 

वे हिन्दी विभाग एवं आंतरिक गुणवत्ता आश्वासन प्रकोष्ठ, राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित राष्ट्रीय शोध कार्यशाला को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि आज का शोध पाश्चात्य संरचना पर आधारित है। 18वीं शताब्दी में जर्मनी में वर्तमान शोध का प्रारम्भिक स्वरूप प्राप्त होता है। तब इसके लिए ‘सेमिनार’ शब्द प्रयुक्त होता था। कालान्तर में सेमिनार का अर्थ अन्य रूप में होने लगा। 
        
प्रो. बिसारिया ने कहा कि साहित्यिक शोध बहुत-ही चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह केवल 'टेबल वर्क' नहीं है। शोध का शीर्षक मौलिक, नूतन और आकादमिक दृष्टि से परिपूर्ण होना चाहिए। शोध कितना जनसापेक्ष है, उसकी पड़ताल होनी चाहिए। शोध में किसी समस्या विशेष पर बात होती है। शोध प्रबंध लेखन एक विशिष्ट कला है। इसमें तथ्य और सत्य के साथ तर्क की आवश्यकता होती है। 

दूसरे सत्र में बोलते हुए कवयित्री बहिणाबाई चौधरी उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. सुनील कुलकर्णी ने 'शोध विषय का चयन कैसे करें?' इस पक्ष पर प्रकाश डालते हुए कहा कि 
शोध के विषय का चयन करते समय शोध निर्देशक और शोधार्थी दोनों को गम्भीर होना चाहिए। विषय प्रासंगिक हो, समाज के लिए उपयोगी हो, तभी उस शोध का महत्त्व है। इसी से शोधार्थी पहचाना जाता है। विषय चयन से पूर्व विषय का गंभीर अध्ययन करना आवश्यक है। 
     
विषय चयन करते समय गहन अध्ययन के साथ संबन्धित विषय के विद्वानों एवं विशेषज्ञों से चर्चा करना चाहिए। विषय शोधार्थी की रुचि के अनुसार होना चाहिए। साथ ही विषय चयन करते समय उसकी सामाजिक उपादेयता पर गम्भीरता से चिन्तन करना चाहिए।
      
कार्यशाला के संयोजक हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. मनोज पाण्डेय ने प्रास्ताविक वक्तव्य में कहा कि शोध ज्ञान के नवीन आयामों का अन्वेषण है। शोधकर्ता को किसी भी विषय पर शोध करने के पूर्व इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि उसके कार्य से साहित्य और समाज के ज्ञान भंडार में कैसी समृद्धि संभव है। शोध के दायरे में उन्हीं पक्षों पर बल दिया जाना चाहिए जिनका सामाजिक सरोकार हो।
     
कार्यक्रम का संचालन डॉ. सुमित सिंह ने और आभार प्रदर्शन डॉ. लखेश्वर चंद्रवंशी ने किया।
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