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परिवार को सुसंगठित करने की नितांत आवश्यकता : विभा राज वैभवी


                
नागपुर। परिवार से समाज और राष्ट्र बनता है। अतः विश्व गुरु बनने के लिए परिवार को सुसंगठित करने की नितांत आवश्यकता है। 

इस आशय का प्रतिपादन श्रीमती विभा राज वैभवी संस्थापिका, हिंदी साहित्य संस्थान, दिल्ली ने किया  । विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में 'संस्कार का आधार परिवार ?' विषय पर आयोजित 136 वीं राष्ट्रीय संगोष्ठी (16वीं) में (15 दिसंबर, 2022)  मुख्य अतिथि के रूप में वे अपना उद्बोधन दे रही थीं। 

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज़ मुहम्मद शेख ने गोष्ठी की अध्यक्षता की। श्रीमती वैभवी ने आगे कहा कि कोई भी व्यक्ति परिवार से बाहर नहीं रह सकता। बच्चों को संस्कार माता-पिता ही देते हैं । बच्चों के विकास के लिए परिवार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। 

हम बेटियों को संस्कार दे रहे हैं पर बेटों को कौन देगा? पैर छूने की परंपरा लुप्त होती जा रही है। चरण स्पर्श में अंगूठा नहीं घुटना छूने की नई परिपाटी आरंभ हुई है। ‘सुप्रभात’ कहने के संस्कार होने चाहिए। बच्चों को पिज़्ज़ा, बर्गर से दूर रखकर नमक रोटी से गुजारा करने की आदत डालनी चाहिए। 

परिवार के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, अतः वृद्ध माता पिता का परिवार में रहना आवश्यक है। उन्हें वृद्धाश्रम ना छोड़े। परिवार में संगठित रहने से नैतिकता का ज्ञान और अच्छे बुरे की पहचान होती है। बच्चों के साथ भी मित्रता पूर्ण व्यवहार हो। हमें अपने दायित्व का एहसास होना चाहिए। 

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तरप्रदेश के उपाध्यक्ष डॉ. ओम प्रकाश त्रिपाठी, सोनभद्र, उत्तर प्रदेश ने कहा कि संस्कार जीवन की अमूल्य निधि है। बच्चों को पैदा होते ही तो माँ का प्यार मिलता है। पुराने जमाने का गणित जीवन से संबंधित था पर आज का गणित व्यापार व उद्योग से संबंधित है। अतः मूल्य वर्धित शिक्षा नीति की नितांत आवश्यकता है। 

नरेंद्र सिंह परिहार, नागपुर, महाराष्ट्र ने कहा कि नैतिक गुणों का विकास ही संस्कार है। हमारे परिवार में प्रथाएं, भाषा का आधार सब एक जैसा हो तभी परिवार एक रूप में विकसित होंगे। पारिवारिक संस्कार आत्मशक्ति को बल प्रदान करता है। संस्कार का सीधा-साधा अर्थ जीवन से जुड़ा हुआ है। 

संस्कार हमारे मन को नियंत्रित करते हैं। संयुक्त परिवार को उत्तम मानकर हमें वैश्विक परिवार की अवधारणा स्वीकारनी चाहिए | क्योंकि संस्कार एक विधि विधान है, जो जाति और मजहब से परे है । प्रो. डॉ.सुधा सिन्हा, पटना, बिहार ने अपने मंतव्य में कहा कि अच्छे संस्कार से व्यक्तित्व में निखार आता है। परिवार संस्कारों की ज्योति पर चलता है।

संयुक्त परिवार का विघटन एकल परिवार में हुआ है, पर आज एकल परिवार भी कहां रहे ? क्योंकि अधिकांश एकल परिवार में मां-पिता दिनभर नौकरी में तो बच्चे पलते हैं आया की गोद में। तात्पर्य यह है कि एकल परिवार में संस्कार की नींव झीनी पड़ जाती है। 

प्रा. कसीरा जहाँ, गुवाहाटी,असम ने कहा कि मनुष्य श्रेष्ठ संस्कारों से  ही बनता  है। सेवा, त्याग, प्रेम, सहनशीलता आदि गुण बच्चों में परिवार से ही उत्पन्न होते हैं। परिवार सामाजिक जीवन की पाठशाला है। सामाजिक जीवन का पहला पाठ बच्चा अपने परिवार से ही सीखता है।

पारिवारिक संस्कार ही मनुष्य के जीवन को गढ़ते हैं और उन पर स्थाई प्रभाव डालते हैं । प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’, ‘बड़े घर की बेटी’, विष्णु प्रभाकर की कहानी ‘धरती अब भी घूमती है’ मन्नू भंडारी का उपन्यास ‘आपका बंटी’ में संस्कारों के गठन में परिवार की भूमिका को दर्शाया गया है तो भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ चित्रा मुद्गल की कृति ‘गिलीगुडू’ में पारिवारिक विघटन के मूल संस्कारों की त्रासदी को दिखाया गया है। 

संस्थान के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने अपने अध्यक्षीय समापन में कहा कि भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही परिवार व्यवस्था एक मजबूत संस्था के रूप में स्थापित रही है। क्योंकि परिवार संस्था की केंद्रीय इकाई में परिवार की स्त्री होती है। स्त्री की समझदारी और विवेकशीलता परिवार को अधिक शक्ति प्रदान करती है। 

यही नारी परिवार में बच्चों को संस्कारित करते हुए परिवार को श्रेष्ठता की कोटि  तक पहुँचा देती है। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने अपने प्रास्ताविक भाषण में कहा कि संस्कार परिवार के सदस्यों में एकता लाते हैं और उन्हें एक सूत्र में बांधे रखते हैं। 

अतः इसमें कोई संदेह नहीं है कि परिवार का आधार संस्कार ही है। गोष्ठी का सफल सुंदर संचालन करते हुए प्रा. रोहिणी डावरे, अकोले, अहमदनगर महाराष्ट्र ने कहा कि पारिवारिक संस्कारों व नैतिक मूल्यों से भरा व्यक्ति शिष्टाचार का महत्व समझता है। 

गोष्ठी का आरंभ डॉ सोनाली चैन्नेवार रायपुर, छत्तीसगढ़ की सरस्वती वंदना से हुआ। डॉ. सरस्वती वर्मा महासमुंद, छत्तीसगढ़ ने स्वागत भाषण दिया। इस गोष्ठी में श्रीमती अनीता जी, संस्थान के महाराष्ट्र प्रभारी डॉ. भरत शेणकर, श्रीमती विजया मालुंजकर, पुणे, डॉ. नजमा मलेक, नवसारी, गुजरात, प्रा.मधु भंभाणी, नागपुर, 

डॉ नूरजहाँ रहमातुल्लाह, गुवाहाटी, असम प्रा. ललिता घोड़के, अकोले, जयवीर  सिंह, पुणे, किरण औताड़े, दामिनी, प्रा. संगीता नवले, रामनिवास, डॉ  प्रेमलता चुटैल, उज्जैन की गरिमामय उपस्थिति रही। डॉ. वंदना श्रीवास्तव, ‘वान्या’, लखनऊ, उत्तर प्रदेश ने आभार प्रदर्शित किए।
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