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आज



इस छोटे शहर की 
हलचल में हंसता, मुखौटा पहना हर शख्स,  
बेज़ार सा लगता है।

बेवफाई कुछ इधर हो
कुछ उधर भी,
आइने में यह चेहरा
मुज़रिम सा लगता है ।

यूं तो वाकिफ़ हैं अपने
मिज़ाज से हम तो ,
खुद अपना मुखड़ा
अंजान सा लगता है।

दिल ना लगाओ हमसे कभी,
हंसी-खेल कब 
बीती बात हो जाए, 
पिंजड़े में बंद तोता उड़ जाए कभी, 
हर पल यह बात सताए रहता है।

मानों ना मानों मेरी बातें, 
है कड़वा सच यही,
झुटलाते रहते हैं 
हम सदा,
यह बहुत अज़ीब 
लगता है ।

- डॉ. शिवनारायण आचार्य 'शिव' 
नागपुर, महाराष्ट्र 
काव्य 1981800407905731979
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