सोच समझकर दान पुण्य करें : कवियित्रि रति चौबे
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नागपुर। शहर की अग्रणी 'हिंदी महिला समिति' संस्था ने एक अत्यंत सारगर्भित विषय पर परिचर्चा रखी जो एक विचारणीय है। यह चर्चा हिंदी महिला समिति की अध्यक्षा एड. रति चौबे की अध्यक्षता में हुई। इसमें शहर की सभी प्रतिष्ठित बहनों ने अपने विचार प्रस्तुत किये जिन पर समाज के सभी लोगों का ध्यान जाना चाहिये और विचार भी करे।
अध्यक्षा लेखिका, कवियित्रि रति चौबे, शिक्षिका गीता शर्मा, एड. सुषमा अग्रवाल, भगवती पंत गायिका, रेखा तिवारी शिक्षिका, साहित्यकार, कवि सुधा राठौर, जयश्री उपाध्ये लेखिका, रेखा पांडे, व्यंजन विशेषज्ञ, कवि मीरा रायकवार, समाज सेविका मीना तिवारी, कवियित्रि पूनम मिश्रा, डॉ कविता परिहार, कवियित्रि अपराजिता उपस्थित थे।
आरम्भ में अध्यक्षा रति चौबे ने कहा- आज भव्य मंदिरो को देख एक आत्मतुष्ठि होती है पर यह तुष्ठी उन मंदिरों मे जाकर उस वक्त खत्म हो जाती है जब वहां कहा जाता है कि यहां आप पावती ले कुछ रुपए दे प्रवेश करे उस समय उस भक्त की आस्था खत्म हो जाती हैै। धार्मिक स्थानों पर मानसिक शांती को जाते है, जरुरी नही की सभी वहां धनराशी दे,
पर अनेको स्थलो पर मंदिर केवल कमाई के स्त्रोत हैं। आज इंसान इन आस्था के स्थलों को भी व्यापार बना अपने शातीर स्वाभाव को नहीं छोड़ता। आज सुदामा कैसे जाए भव्य मंदिरो मे कृष्ण भी वहां बंदी है।
आज नादां ईश इन गिरगिट बने मंदिरो के ढोगी शातीरो को भी पहचान नही पा रहे जो आस्था, जापमंत्र, पूजा के नाम भक्त व नादां ईश्वर को ढग रहे हैं। मंदिरों से करोडो रुपयों की कमाई कर रहे है।अन्याय हंस रहा सत्य रो रहा है।
हमें भी चाहिए कि हम सोच समझकर दान पुण्य करें भ्रष्टाचार तो हर क्षेत्र में पैर पसारे बैठा है। मंदिर अमीर भी जाते है और गरीब भी। गरीब बिचारे एक टोकरी, फूल मिश्री और अगरबत्ती लेकर घन्टों प्रतीक्षा करके भगवान के दर्शन करके एक सन्तुष्टी चेहरे पर लेकर लौटते हैं।
धामिॅक स्थलों पर वीआइपी दशॅनों को मान्यता ही नहीं देनी चाहिऐ। सब के लिए ही फीस एक जैसी होनी चहिए। साथ ही वहां चढ़ाने वाली रकम भी निश्चित की जानी चाहिऐ ताकि निम्न वर्ग के लोगों की हीन भावना को नज़रअंदाज़ ना किया जाए।
आश्रम हमारे भारत की शान होते थे जहां बच्चे शिक्षा के साथ ही संस्कार, बडों का आदर करना, स्वावलम्बी बनने के साथ ही धामिॅकता भी सीखते थे। भगवान नादान है तभी तो मनुष्य को को पांच इनद्रियों के साथ ही सोचने और समझने की शक्ति भी प्रदान की है।
पर इन्सान की धन लोलुपता ने उसे हैवानियत की सारी सीमा लांघने के लिऐ विवश करके इस हालत तक पहुँच दिया है कि आज हम भगवान को नादान और इंसान को शैतान मानने पर विवश हो चुके हैं। आभार अंत मे अपराजिता राजौरिया ने माना।