भगवान कृष्ण भारतीय जन का जीवन तत्व है : प्रो. डॉ. गोविंद बुरसे
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नागपुर/पुणे। भगवान कृष्ण भारतीय जीवन का तत्व है। कृष्ण ने भारतीय मानस को जीने का पोषक आधार दिया है। इस आशय का प्रतिपादन प्रो. डॉ. गोविंद बुरसे, शिवाजी महाविद्यालय, कन्नड़, औरंगाबाद, महाराष्ट्र ने किया।
विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में आयोजित 134 वीं राष्ट्रीय आभासी गोष्ठी (30 नवंबर 2022) में मुख्य अतिथि के रूप में वे अपना उद्बोधन दे रहे थे। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे ने गोष्ठी की अध्यक्षता की।
'रीतिकाल में कृष्ण भक्ति काव्य' गोष्ठी के इस विषय पर मंतव्य प्रकट करते हुए प्रो. बुरसे ने आगे कहा कि कृष्ण प्राचीन काल से आधुनिक काल तक विभिन्न रूपों में दिखाई देते हैं। वे हर रूप एक दूसरे के पूरक हैं। किसी एक रूप को किसी दूसरे रूप पर कोई आपत्ति नहीं है।
रीतिकाल में कृष्ण के रूप पर श्रंगारिकता का प्रभाव पड़ा है। यह तत्कालीन स्थितियों का प्रभाव है। चिंतामणि, भिखारीदास, मतिराम, बिहारी, आलम, घनानंद और पद्माकर ने राधा कृष्ण के माध्यम से अच्छी काव्य रचनाएं की है।
इन कवियों ने राधा कृष्ण के माध्यम से लिखी श्रंगारिक कविता में मर्यादा का पालन भी किया है । प्रा. नीतामणि बरदलै, डिग्बोई महाविद्यालय, डिग्बोई, असम ने कहा कि रीतिकाल में राधा कृष्ण को नायक नायिका के रूप में चित्रित किया गया है।
सामंती व्यवस्था के कारण रीतिकाल में कृष्ण के रसिक रूप को काव्य का विषय वस्तु बनाया गया है। कृष्ण काव्य का चित्रण श्रृंगार युक्त भक्ति के रूप में हुआ है। कृष्ण काव्य में भाव सौंदर्य की अपेक्षा भाषिक सौंदर्य को अधिक महत्व दिया गया है। रीतिकालीन कवियों ने कृष्ण के सौंदर्य व रासलीला का भी चित्रण किया है।
डॉ. अनीता वानखेडे, एन. एम. मॉडल कनिष्ठ महाविद्यालय, नागपुर, महाराष्ट्र ने व्यक्त किया कि रीतिकाल का आरंभ भक्ति काल में ही हो चुका था। कृष्ण भक्ति को सगुण ईश्वरीय भक्ति को माननेवाले कवियों में कृष्ण की आठों पहर की पूजा को अष्टछाप के कवियों ने कृष्ण के सौंदर्य रूप का वर्णन प्रारंभ कर दिया था।
क्रमशः मंगलाचरण काव्य, श्रृंगार काव्य, ग्वाल रूप काव्य, राजभोग काव्य, उत्थापन काव्य, संध्यारती काव्य इन सभी में सौंदर्य से ओतप्रोत रचनाएं लिखी गई हैं। इसी परंपरा को रीतिकाल में कृष्ण भक्ति काव्य में कृष्ण राधा के सौंदर्य को नायक नायिका के सौंदर्य भक्ति में प्रस्तुत किया गया है। रीतिकाल के विद्यापति ने श्रृंगार की अविरल धारा को प्रवाहित किया।
अध्यक्षीय समापन करते हुए संस्थान के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने कहा कि हिंदी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल का अपना स्वतंत्र महत्व है। बारीकि से देखा जाए तो रीतिकाल का स्थान आदिकाल - भक्तिकाल से कदापि कम नहीं है| रीतिकाल के कृष्ण काव्य में भक्ति और श्रृंगार का अद्भुत समन्वय पाया जाता है।
संगोष्ठी की प्रस्तावना में संस्थान के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश ने संस्थान की गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए रीतिकाल में कृष्ण भक्ति काव्य पर अपना सारगर्भित मंतव्य प्रस्तुत किया।
आभासी गोष्ठी का प्रारंभ डॉ. सरस्वती वर्मा, महासमुंद, छत्तीसगढ़ द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना से हुआ। पूर्णिमा मालवीय, प्रयागराज ने स्वागत भाषण दिया। गोष्ठी का संचालन डॉ. रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया तथा डॉ. रश्मि लहर श्रीवास्तव, लखनऊ ने आभार ज्ञापन किया।
उक्त गोष्ठी में प्रा. मधु भंभाणी, नागपुर, गोष्ठी की संयोजक प्रा. पुष्पलता श्रीवास्तव ‘शैली’, रायबरेली, डॉ. नजमा मलेक, गुजरात, डॉ. नूरजहां रहमातुल्लाह, गुवाहाटी, असम; डॉ. शोभना जैन, व्यारा, गुजरात, महाराष्ट्र प्रदेश प्रभारी डॉ. भरत शेणकर, राजूर; श्री. लक्ष्मीकांत वैष्णव, छत्तीसगढ़ की गरिमामय उपस्थिति रही।