यथा नाम तथा गुण जीने का प्रयास करना!
फिर ग्यारह साल पहले जब मैंने अपने पसंदीदा कार्यक्षेत्र लेखन, सृजन, समाजसेवा में गम्भीरता से काम करने लगी तब से लेकर आज तक न जाने कितने प्रशंसकों ने अलग-अलग अंदाज़ में मुझे याद दिलाया होगा कि ज़ेहन में बैठ गया है अब इस पथ से विमुख नहीं होना है। यहाँ तक कि मेरे पिता व बड़े भैया व भाभियों ने कविताओं में लिखा, कुछ बच्चों ने ग्रिटींग कार्ड में लिखा। बाद में मार्गदर्शकों ने और एक बार वरिष्ठ महिला साहित्यकार ने मेरी डायरी में अंकित कर दिया, तुम यथा नाम तथा गुण हो।
जिसने मेरे अंतर्मन को अत्यधिक प्रभावित किया तब मैंने अपने मार्गदर्शक से गंभीरतापूर्वक यह सवाल किया कि क्या यह सब महज प्रसंशा है या सचमुच चाँद के कुछ गुण मुझमें परिलक्षित होते हैं? और उन्होंने विचारशीलता से, मेरे आध्यात्मिक उन्नयन को ध्यान में रखते हुए जवाब दिया, ऐ जिज्ञासु! लोग आपको चाँद से यूँ ही नहीं जोड़ते, आपमें व चांद में सचमुच एक संबंध है।सबसे पहले आपका नाम, दूसरा आपकी जन्म तिथि - जैसा कि आप जानते हैं, संख्या 2 (20) होने के कारण अंकशास्त्रीय रूप से चंद्रमा द्वारा शासित है। तीसरा, आपका सुंदर हृदय, और शीतल मन- आपकी मधुर वाणी और मधुर व्यवहार, ये सभी गुण आपको चंद्रमा से जोड़ते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण चंद्रमा को प्रकाश सूर्य से मिलता है और वह उसका 100% दे देता है।
उनकी तरह आप भी ऊपरवाले से जो मिलता है उसका 100% देने की कोशिश करते हैं, अपने लिए कुछ नहीं रखते। यद्यपि चंद्रमा को सूर्य से प्रकाश मिलता है, पृथ्वी से नहीं पर वह सूर्य के पीछे नहीं भागता जो देने वाला है वह हमेशा पृथ्वी के प्रति कर्तव्यबद्ध रहता है - उसका कर्म - यह सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का उसका तरीका है - क्योंकि, ऐसा करके (पृथ्वी की परिक्रमा करके) वह सूर्य के मिशन को पूरा करता है अर्थात पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखना।
आपको भी ऊपर से प्रकाश मिलता है जिसे आप अपने विनम्र तरीके से चारों ओर फैलाते हैं व ईश्वर/प्रभु के मिशन को पूरा करते हैं, और साथ ही आप अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों के प्रति भी कर्तव्यबद्ध रहते हैं।कई और भी कनेक्टिंग पॉइंट्स हैं लेकिन फिलहाल आपकी जिज्ञासा को स्थिर करने के लिए शायद इतना पर्याप्त है। खैर ईश्वर की कृपा बनी रहे, मेरे अंदर अहंकार न आये यही प्रार्थना करती हूँ।
उपरोक्त व्याख्या हालाँकि मेरे नाम से संलग्न है लेकिन एक गूढ़ सन्देश देता है । जिस प्रकार सिक्के के दो पहलु होते हैं उसी प्रकार सृष्टि में मनुष्यों की प्रवृत्ति भी मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित है। एक वह जो "मैं" के मोह में डूबा है सिर्फ अपने भले की परवाह करते हैं और दूसरा वह जो सदैव परहित के लिए जीता है और उसे पूर्ण आत्मिक संतोष प्राप्त होता है।
परोपकार के लिए यह आवश्यक नहीं कि कोई धनाढ्य हो या शक्तिशाली हो, यह एक दैवी गुण है और हर व्यक्ति परहित में काम कर सकता है. निराशा के भंवर में डूबे किसी का मनोबल बढ़ाना, सही समय पर नेक सलाह देना, किसी को ज़रा सा आर्थिक मदद करना, मोटीवेट करना, आगे बढ़ाना, आदि अनगिनत रूपों में एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के काम आ सकता है और अपने माता-पिता द्वारा दिए प्रभावशाली नामों को सार्थक सिद्ध करने का प्रयास कर सकता है।
- शशि दीप
विचारक/ द्विभाषी लेखिका
मुंबई
shashidip2001@gmail.com