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दशहरा



मेरे मन का राम 
रोज काटता है 
सिर रावण का,
न जाने कैसे

फिर उग आता है सिर कहीं से, 
रोज कटते जाता है सिर
रोज आ जाता है 
एक और रावण।

बदलते मौसम जैसा 
ग्रीष्म हो या हो सावन,
मेरे मन में है राम, 
मेरे ही मन में पलता रावण।

- डॉ. शिवनारायण आचार्य 'शिव'
नागपुर (महाराष्ट्र)
काव्य 4072962492097033039
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