प्रेम के बिना ‘सत्यं शिवं सुंदरम’ की कल्पना असंभव है : डॉ. अलका गडकरी
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नागपुर। प्रेम मानव जीवन का अविभाज्य अंग है। प्रेम के बिना ‘सत्यं शिवं सुंदरम’ की कल्पना असंभव है। इस आशय का प्रतिपादन डॉ. अलका नारायण गडकरी, शिवाजी महाविद्यालय, कन्नड़, जिला औरंगाबाद, महाराष्ट्र ने किया।
विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में आयोजित 132 वीं राष्ट्रीय आभासी संगोष्ठी में वे मुख्य अतिथि के रूप में उद्बोधन दे रही थी। संगोष्ठी के विषय ‘क्षीण होती मानवीय संवेदना’ पर अपने मंतव्य में डॉ. गडकरी ने आगे कहा कि वर्तमान परिवेश में हम संवेदनाहीन होते जा रहे हैं। ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ वाली हमारी संस्कृति को कलंकित करने का काम वैश्वीकरण में हो रहा है | जिसके लिए मीडिया जिम्मेदार है | मीडिया से जितनी सुविधाएं हमें प्राप्त हो रही है उससे अधिक नुकसान भी हो रहा है। समाज की संवेदनाएं आज क्षीण होती जा रही है। रिश्तों से प्रेम नदारद हो रहा है।
डॉ. नूरजहां रहमातुल्लाह, सहआचार्य, हिंदी विभाग, कॉटन विश्वविद्यालय, गुवाहाटी, असम ने वक्ता के रूप में व्यक्त किया कि संवेदना का विषय समस्त ब्रह्मांड के लिए विचारणीय मुद्दा है। आधुनिकीकरण में मनुष्य सारे मूल्यों का स्रोत और उसके उत्पादन का कारण बना तथा स्वयं ही उनके विघटन का कारण भी। प्रेम, सहानुभूति, करुणा, उदारता आदि मानवता के लक्षण हैं। आज समाज में व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना का जिस तीव्रता से विकास हो रहा है, वह बहुत चिंता का विषय है।
आज मनुष्य केवल अपने लिए जीता है और अपने लिए ही सोचता है। संवेदनाहीन मनुष्य पशु की कोटि में गिना जा रहा है। संवेदनाहीन मनुष्य आज स्वयं के प्रति भी असंवेदनशील होते जा रहे है, यह बहुत ही चिंता का विषय है। आज मनुष्य केवल अपने लिए ही जीता है और अपने लिए ही सोचता है। मनुष्य,मनुष्य ही है न कि मशीन।
सुश्री स्वरांगी साने, पूर्व वरिष्ठ उप संपादक, लोकमत समाचार, पुणे ने कहा कि संवेदना का अर्थ ही है दूसरों की भावनाओं को पहचानना। मानवीय संवेदनाओं के क्षीण होने के कारणों में एक बड़ा कारण संयुक्त परिवार का टूटना है। संयुक्त परिवारों में अनायास संस्कार मिलते थे पर आज भूतदया हम भूलते जा रहे हैं। हमें दूसरों के दुखों से कोई लेना देना नहीं है। यही क्षीण होती मानवीय संवेदना सामाजिक ढांचे को कमजोर बनाती जा रही है।
डॉ. लोकेश्वर प्रसाद सिन्हा, हिंदी विभाग दुर्गा महाविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने कहा कि मनुष्य जीवन एक दूसरे के सहयोग के लिए है| पर आज मनुष्य स्वार्थ से घिरा प्रतीत होता है। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज के सचिव डॉ.गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने अपनी प्रस्तावना में कहा कि क्षीण होती मानवीय संवेदनाएं मानव मात्र को कलंकित कर रही है। संवेदनहीनता पशुता की निशानी है।
विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने अध्यक्षीय समापन में कहा कि मानवीय संवेदना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है| मनुष्य में मानवता के बदले यांत्रिकता दिखाई देती है। एक दूसरे के प्रति संवेदनशीलता कम हो जाना समाज के लिए चिंता का विषय है। परिणामत: हत्याएं, आत्महत्याएं जैसी घटनाएं घटित हो रही है। इसका कारण है कि मनुष्य मशीन बनता जा रहा है।
कमलेश्वर जी की ‘दिल्ली में एक मौत’ क्षीण होती मानवीय संवेदना का वास्तविक दर्शन कराती है। संगोष्ठी का शुभारंभ प्रा. माधुरी बेनके , नासिक की सरस्वती वंदना से हुआ। डॉ. रजिया शेख, बसमत, महाराष्ट्र ने स्वागत भाषण दिया।
इस गोष्ठी में डॉ. भरत शेणकर, राजूर, महाराष्ट्र, डॉ. प्रतिभा येरेकार, धर्माबाद, नांदेड, प्रा. नंदिता राजबंशी, गुवाहाटी असम, प्रा. ललिता घोड़के, अकोले, महाराष्ट्र, प्रा. मधु भंभानी, नागपुर सहित अनेकों की गरिमामय उपस्थिति रही। डॉ. लक्ष्मीकांत वैष्णव, चांपा, जांजगीर, छत्तीसगढ़ ने धन्यवाद ज्ञापन किया तथा गोष्ठी का सफल संचालन प्रा. रोहिणी डावरे, अकोले, महाराष्ट्र ने किया।