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माँं


मुश्किलों को मेरी या अल्लाह कह कर टाल देती है।
घर से निकलता हूं जब, 'आयतलकुर्सी' का दम डाल देती है।।

चोट लगे, गिरे लहू का कतरा एक, वो उसे संवार देती है।
मैं रोटी मांगू एक वो चार देती है।।

ज़िंदगी में मेरी वो बताशे सी मिठास घोल देती है।
मैं मांगू जब रुपया, घर के ख़ज़ाने खोल देती है।।

खाँ कर ले  माँं की खिदमत, ज़िंदगी मिलती नहीं दोबारा।
माँं ही ज़िंदगी देती, माँं खोले जन्नत का दरवाजा।।

खाँ  की ज़ुबां करना सकी जो बयां, 
कलम वो राज़ सुर्ख़ पन्नों पे खोल देती है।।

(आयतलकुर्सी – कुरान की आयत)

- फहद ख़ान
 शहडोल, मध्यप्रदेश।
काव्य 2816296323973141193
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