'उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाएँ’ विषय पर साप्ताहिक गोष्ठी आयोजित
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नागपुर/हैदराबाद। केंद्रीय हिंदी संस्थान, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद तथा विश्व हिंदी सचिवालय के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से भाषा विमर्श की श्रृंखला के अंतर्गत ‘उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाएँ’ विषय पर साप्ताहिक गोष्ठी आयोजित की गई।
विदित है कि भाषा भाष्य बनकर भविष्य बनाती है और सार्थक जीवन यापन कराती है। आज के समय में भाषा को लोक जीवन से जोड़ने के लिए जीवन के हर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की चर्चा ज़ोरों से चल रही है जिसमें कानून का क्षेत्र भी एक है।
भारत के कुछ ही उच्च न्यायालयों में प्रादेशिक भाषा में काम होता है जबकि सभी में होना चाहिए। यह मानवाधिकार, अभिव्यक्ति और रोजगार आदि से जुड़ा महत्वपूर्ण विषय है। हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालय में गुजराती के प्रयोग हेतु अनेक चुनौतियाँ आयी हैं जिन्हें वरिष्ठ अधिवक्ता श्री असीम पण्ड्या ने पुरजोर तरीके से उठाते हुए बार काउंसिल के अध्यक्ष पद से त्याग पत्र दे दिया। आज के कार्यक्रम में इस विषय पर विशेषज्ञों द्वारा बेबाक विश्लेषण सहित विचार प्रकट किए गए।
कार्यक्रम के आरंभ में वैश्विक हिन्दी परिवार के संयोजक एवं बैंक ऑफ बड़ौदा के सेवानिवृत्त महाप्रबंधक डॉ॰ जवाहर कर्नावट द्वारा विमर्श के विषय के विविध आयामों की पृष्ठभूमि प्रस्तुत की गई। तदोपरांत केंद्रीय हिन्दी संस्थान के हैदराबाद केंद्र के क्षेत्रीय निदेशक डॉ॰ गंगाधर वानोडे द्वारा बड़े ही संयत भाव से माननीय अध्यक्ष, मुख्य अतिथि और विशिष्ट वक्ता वृंद का संक्षिप्त परिचय कराते हुए विधिवत स्वागत किया गया। कार्यक्रम के संचालन की बखूबी बागडोर संभालते हुए राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ॰ राजेश कुमार ने विद्वानों का सादर समादर किया और विषय की गहनता हेतु गुजरात हाई कोर्ट में बार काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष श्री असीम पण्ड्या को सर्वप्रथम तथ्य रखने का आग्रह किया
लगभग तीन दशकों से विधि क्षेत्र में सेवारत एवं अनेक पुस्तकों के लेखक श्री असीम पण्ड्या ने इस आयोजन पर प्रसन्नता प्रकट की। उन्होंने बताया कि हाई कोर्ट में हर मामले को दाखिल करते समय गुजराती से अङ्ग्रेज़ी में अनुवाद के लिए लगभग पचास से नब्बे हजार तक का खर्च आता है जो जन सामान्य पर बहुत भारी पड़ता है। राज्य के राज्यपाल, औपचारिकताओं की पूर्ति के साथ प्रादेशिक भाषा में काम करने की अनुमति दे सकते हैं। उन्होने संविधान के अनुच्छेद 348 का भी हवाला दिया और कहा कि अङ्ग्रेज़ी के लिए जबरदस्त मानसिकता बनी हुई है जो भेदभावपूर्ण है। श्री पण्ड्या ने 1965 में कैबिनेट कमेटी की टिप्पणी का भी उल्लेख किया जो कानून को ठीक से व्याख्यायित न कर पाने से गलतफहमी के कारण हुआ। इसके अलावा तमिलनाडु के आवेदन की ओर भी ध्यान दिलाया। काफी विमर्श एवं संघर्ष के बाद भी गुजराती भाषा के प्रयोग हेतु अनुमति न मिलने पर स्थितिजन्य विवशतावश मुझे अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। अब मेरी बार काउंसिल में सदस्यता बनी रहने पर भी संदेह है किन्तु मैं अपनी भाषा के प्रयोग हेतु जोखिम उठाने के लिए पूरी तरह तत्पर हूँ।
शिक्षा संस्कृति न्यास के सचिव एवं राष्ट्रीय शिक्षा नीति से जुड़े विद्वान श्री अतुल कोठारी ने कहा कि जनता का काम जनता की भाषा में ही होना चाहिए। विदेशी भाषा में यह अन्यायपूर्ण है जो हमें लज्जास्पद अतीत की याद दिलाती है। अपनी भाषाओं को लागू करने के लिए बेंच बनाई जानी चाहिए। राज्यों के बँटवारे के बाद मूल राज्य की भाषा का उच्च न्यायालय में प्रयोग होना चाहिए किन्तु उत्तराखंड ,झारखंड और छतीसगढ़ के साथ नहीं हुआ और अङ्ग्रेज़ी रखी गई। अधीनस्थ अदालतों में प्रादेशिक भाषा में काम होना स्वाभाविक और कानूनी प्रावधान है किन्तु कुछ राज्यों में नहीं होता। माननीय प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने भी न्यायिक सम्मेलनों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बढ़ावा देने का आग्रह किया है। इसके लिए पूर्व न्यायाधीशों, वकीलों, विद्वानों और विशेषज्ञों की समिति के साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा ताकि राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय भाषाओं के साथ न्याय हो तथा जागरूकता और आपसी प्रेम बढ़े।
ह्यूमन राइट्स डिफेंस इंटेरनेशनल के महासचिव श्री राजेश गोगना का मत था कि भारतीय भाषाओं में न्याय न मिलना अभिव्यक्ति में रुकावट है तथा आर्थिक व सामाजिक असमानता का द्योतक है। अंग्रेज़ी के बड़े वकील बहुत महंगे होते हैं जिन्हें सामान्य आदमी अपनी ओर से खड़ा करने में असमर्थ होता है यह भाषा की दृष्टि से न केवल अन्याय बल्कि अपराध भी है जिसका अविलंब निराकरण होना चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार एवं भाषाकर्मी श्री राहुल देव ने श्री असिम पण्ड्या के संघर्ष की सराहना की। उन्होंने कहा कि अंग्रेज़ी के लिए आदतन मानसिकता बनी हुई है। भारतीय भाषाओं के लिए जन आंदोलन और ऊपरी दबाव होना चाहिए। अठारहवें विधि आयोग की रिपोर्ट पर पुनः विचार हो। उन्होने इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश स्व॰ प्रेम शंकर गुप्त का उदाहरण दिया जिन्होने चार हजार से अधिक मामलों का हिन्दी में निर्णय दिया था। बहुत अनुभवी विद्वान श्री राहुल देव का कहना था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति की सम्मति से यह संभव है। आजादी के 75 वर्ष बाद भी यह वादी, प्रतिवादी, वकील और न्यायाधीश के साथ भी अन्याय है जो अज्ञानता और दुराग्रहपूर्ण है तथा भाषायी मानवाधिकार के उल्लंघन से संबन्धित है। अधिकांश लोगों को संविधान की जानकारी ही नहीं है। हमारी अपनी भाषाओं को हेय दृष्टि से देखा गया है। नई तकनीकी ने भाषाओं को लागू करने का काम आसान कर दिया है। संसद की तरह न्यायालयों में यह संभाव्य है। इसके लिए समग्र प्रयास होना चाहिए।
बार काउंसिल के अध्यक्ष श्री मनन कुमार मिश्र ने कहा कि न्यायालय परिसर में ब्रिटिश राज सदृश अंग्रेज़ियत का वर्चस्व है। भाषाई आजादी का सपना पूरा नहीं हुआ है। उन्होंने श्री असिम पण्ड्या के साहसी कदम की मुक्त कंठ से सराहना की और बार काउंसिल की ओर से हर संभव प्रयास सहयोग का आश्वासन दिया तथा इस संबंध में हाल ही गठित एक उच्च स्तरीय समिति की जानकारी दी।
जापान से जुड़े पद्मश्री से सम्मानित डॉ तोमियो मिजोकामी ने जापान में जापानी भाषा के कठोर न्यायिक प्रावधानों की संक्षेप में जानकारी दी तथा मानवाधिकार से जुड़े अंतरराष्ट्रीय कानून को भी उद्घृत किया। उन्होंने भारत की न्यायिक प्रक्रिया में भाषायी भेदभाव पर आश्चर्य प्रकट किया और कहा कि इस ओर यथेष्ट ध्यान दिया जाना चाहिए। श्री पवन सागर और आशीष रंजन ने भी विविध क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग का मार्ग प्रशस्त करने की पुरजोर अपील की।
केंद्रीय हिन्दी शिक्षण मण्डल के उपाध्यक्ष एवं इस कार्यक्रम के प्रणेता श्री अनिल जोशी जी ने सभी वक्ताओं की सराहना की और कहा कि इस संबंध में विधायिका ,गृह मंत्रालय और विधि मंत्रालय का सामूहिक सत प्रयत्न आवश्यक है जहां के शीर्षस्थ मंत्रीगण भी बहुत अनुभवी और भारतीय भाषाओं के प्रबल हिमायती हैं। उन्होंने कहा कि आई॰आई॰टी॰ में भी भारतीय भाषाओं में पढ़ाई शुरू हो गई है और आज ही मध्य प्रदेश शासन में एम॰बी॰बी॰एस॰ के पाठ्यक्रम की हिन्दी माध्यम की पुस्तकों का माननीय गृह मंत्री श्री अमित शाह जी द्वारा लोकार्पण हुआ। विधि के क्षेत्र में भी यह कार्यान्वित होना चाहिए। उन्होंने सभी संस्थानों और विद्वानो तथा विशेषज्ञों से सहयोग की अपील की।
कार्यक्रम में सभी महाद्वीपों के लगभग पच्चीस से अधिक देशों के विधिवेत्ता, लेखक, विद्वान, साहित्यकार एवं सुधीजन जुडकर आनंद से ज्ञानर्जन करते रहे और संभावनाओं की समुचित राह तलाशते रहे। इस कार्यक्रम के संरक्षक केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, आगरा के उपाध्यक्ष श्री अनिल जोशी तथा मुख्य मार्गदर्शक वरिष्ठ पत्रकार एवं भाषाकर्मी श्री राहुल देव हैं। मार्गदर्शक श्री संतोष चौबे, नारायण कुमार तथा वी. जगन्नाथन हैं। कार्यक्रम के संयोजक डॉ. राजेश कुमार तथा अंतरराष्ट्रीय संयोजक कनाडा से शैलजा सक्सेना हैं। तकनीकी सहयोग डॉ. मोहन बहुगुणा तथा डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त‘ का रहा। डॉ. विजय मिश्र, डॉ. गंगाधर वानोडे तथा श्री विजय नगरकर का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ। रिपोर्ट लेखन कार्य डॉ. जयशंकर यादव तथा डॉ. राजीव कुमार रावत को सौंपा गया।
मुंबई से जुड़े लेखक डॉ॰ रमेश यादव ने संयत और ओजपूर्ण वाणी में माननीय अध्यक्ष, मुख्य अतिथि, विशिष्ट वक्तावृंद तथा सुधी श्रोताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। उन्होंने इस कार्यक्रम से देश-विदेश से जुड़ी संस्थाओं एवं व्यक्तियों का नामोल्लेख सहित आत्मीय ढंग से विशेष आभार प्रकट किया। श्री रमेश यादव ने संदर्भ सहित कवित्व के साथ हिन्दी का वैश्विक गौरव बढ़ाने हेतु इस कार्यक्रम से जुड़े संरक्षकों, श्रोताओं, अभिप्रेरकों, संयोजकों, मार्गदर्शकों तथा विभिन्न टीम सदस्यों को हृदय से धन्यवाद दिया। ज्ञातव्य है कि यह कार्यक्रम “वैश्विक हिन्दी परिवार” शीर्षक से यूट्यूब पर भी उपलब्ध है।
- डॉ॰ गंगाधर वानोडे
क्षेत्रीय निदेशक,
केंद्रीय हिंदी संस्थान, हैदराबाद केंद्र