प्रसादम् जैसा नाम वैसा गुण
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प्रसादम् जैसा नाम वैसा गुण! जैसे प्रसाद अमृतमय होता है, वैसे ही प्रसादम की विषय वस्तु और साज सज्जा काव्यामृतवत है। जैसे अमृत पाकर मृत जी उठता है, ऐसे ही प्रसादम् का मुखपृष्ठ देखते ही निष्प्राण में भी प्राण संचरित हो जाते हैं।
कवियों के लिए विशेषण कौस्तुभ आया है,जैसे कौस्तुभ मणि श्री हरि की छवि को कई गुना बढ़ा देती है,ऐसे ही ज्ञानी -भक्त-कवि-लेखक जन प्रसादम की मधुरता,सुंदरता में मानो चार चाँद लगा देते हैं।
'प्रसाद' भगवान के पूजा का फल है। समुद्र मंथन से जैसे अमृत निकला वैसे ही माँ सरस्वती की काव्य रूप आराधना और गहन शोध और मंथन के बाद 'प्रसादम्' रूपी अमृत प्राप्त हुआ है।
नववधू के श्रृंगार की तरह ही 'प्रसादम्', का भी साज सज्जा रूप श्रृंगार हुआ है। साज सज्जा करने वाले कलाकार को बिना नमस्कार किये नहीं रहा जा सकता।सजाने की कल्पना को मन मे धारण करना होता है,फिर जब कलाकार ठोस धरातल पर उसे उकेरता है तब हम उसे देख पाते हैं।...गजब की प्रतिभा का परिचय ये कलाकार दे रहा है,इसमें रंच मात्र भी संदेह नहीं।
पृष्ठ तीन पर बिदुर जी की पत्नी योगेश्वर श्री कृष्ण को केले का भोग लगा रही हैं, भक्ति की पराकाष्ठा है। वे उनको देख स्वयं को ही भूल गईं,छिले केले की जगह छिलका ही देने लगीं और प्रभु उसी छिलके से तृप्त हो गए। वे तो जगत्पति ठहरे भक्ति और भक्त के अधीन हैं वे, तभी तो विदुरानी के छिलके,द्रौपदी के बर्तनों के पेंदी में लगे चावल और भिलनी के जूठे बेर स्वयं के साथ त्रिलोकी को भी तृप्त कर देते हैं। धन्य हैं वे भगवान और भक्त, इसी का चित्रण पृष्ठ 3 पर हो रहा है।
पृष्ठ 4 पर स्वास्तिक जिसके चार कोनों पर लिखा दिख रहा है, 'स्नेहो भक्तिश्च माधव, ब्रह्मसरोज दलम, तत्सुखे सुखित्त्वम्, स्वस्त्यस्तु विश्वम्' सूक्तियाँ अद्भुत हैं, सभी के कल्याण की कामना ही तो प्रसादम् का मूल है।
पृष्ठ 6,पर जिस कलात्मक ढंग से सुश्री दीप्ति शुक्ल का परिचय दिया है, काबिले तारीफ है, सराहनीय है।
पृष्ठ 19 पर छप्पन भोग क्यों लगते हैं,का विवरण है। सात दिन तक 7 बर्ष के यशोदा के लाला गोवर्धन को कनिष्ठिका पर उठाए रहे,तो आठों पहर कलेवा देने वाली माँ अगले दिन 56 प्रकार के व्यंजन बना कर लाला को खिलाती है। अद्भुत मातृ प्रेम। प्रतिभा जी ने इसे अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया है।
उत्तम ज्ञान की वार्ता,भक्ति और कर्म के साथ त्रिवेणी जैसा ही फलप्रदान करती है। 'प्रसादम्' वही त्रिवेणी है।
'गुरु उवाच' पृष्ठ 29 पर बड़े सलीके से समझाया गया है, जिसे मंद बुद्धि भी आत्मसात कर ले।इस लेख में वाक्य 'मच्चित्त: सततं भव' तो मानो क्रीम है।यह एक वाक्य में ही गीता भरी है। दिन रात सतत् बिना ब्रेक के चित्त को मुझमें लगा दो,सारे वेदों,पुराणों,उपनिषदों का यही तो सार है।
डॉ निशिकांत जी का लेख *सच तो यह है कि जगत में प्रेम ही सीताराम* अद्वितीय है,सीयराम मय सबजग जानी।कृष्ण ही प्रेम है और प्रेम ही कृष्ण !
कृष्ण चर्चा हो और गिरिराज जी का वर्णन न हो कैसे संभव है? विनीता जी का गिरिराज वर्णन तो मानो भोजन में उचित मात्रा में लवण है।काव्य संकलन के कई पुष्प हैं,जैसे कृष्ण कन्हैया,श्री कृष्ण जन्म,कृष्णलीला आदि सभी अमृतमय।
संक्षेप में कहें तो *प्रसादम्* काव्य ,गद्य में अद्वितीय भक्ति की चासनी में लिपटा एक संग्रह है।
लेखक गण अद्वितीय प्रतिभा के धनी हैं,जितना भी लिखा जाय, कम ही होगा।स्थान और समय की सीमा को देखते हुए मैं अपनी लेखनी को यही विश्राम देता हूँ ।
धन्य है, प्रसादम् के पुरोधा और पाठक!
-डॉ. हरिवंश पांडेय डी. एस-सी.
प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष
रा. ब.सि. महाविद्यालय, आगरा