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'झूलेलाल साईं के नाम' प्रतियोगिता



सिंधी बोली - संस्कृति से बच्चों को अवगत कराएं : डॉ. नेहा कल्याणी

नागपुर। भारतीय ज्ञान मंच द्वारा 'झूलेलाल साईं के नाम' प्रतियोगिता का आयोजन रविवार  को ऑनलाइन किया गया. देश के विभिन्न प्रांतों से सिंधी भाईबंधुओं ने इसमें हिस्सा लिया. आमतौर पर झूलेलाल के नाम से जाने जानेवाले सिंधी समाज के इष्टदेव के कई नाम प्रचलित हैं, जैसे कि वरूणअवतार, उडेरोलाल, लाल साईं, गरीबनवाज़, शीतलराय, मस्तकलंदर, अमरलाल, उदयचंद, सुजाणनाथ इत्यादि. प्रतिभागीयों को इन्हीं नामों की खोज शब्द पहेली के रूप में करनी थी. 

कार्यक्रम की मुख्य अध्यक्षा, संस्कृत और हिंदी में डॉक्टरेट प्राप्त डॉ. नेहा कल्याणी ने कहा कि मातृभाषा के प्रयोग से स्वयं की भाषा का विकास होता है. अपनी भाषा में बात करने से दुखदर्द हल्के हो जाते हैं. भाषा, जीवन के संगीत में गज़ल होती है. जैसे साँस हमारे शरीर में समाई हुई होती है, वैसे ही भाषा रग रग में रक्त बनकर बहती है. 

मनुष्यों के नैन नक्शों की तरह ही भाषा हमारी पहचान है. इसलिए जब हमपर कोई और भाषा थोपी जाती है, तो ऐसा लगता है कि हमारी पहचान ही छिन गई है. हिंदी और अंग्रेजी के पीछे भागकर हमें सिंधी भाषा को नहीं भूलना चाहिए. भाषा वह पुल है जो हमें एक दूसरे के साथ जोडती है. 

कार्यक्रम का आयोजन व संचालन डॉ. भारत खुशालानी ने किया. हीरल कवलानी ने कहा कि उत्तर प्रदेश सिंधी अकादमी सिंधीयत के लिए सतत प्रयासशील रही है. वहाँ दो साल चल रहे सम्मर कैंप में अलग अलग जगहों से सिंधी टीचर जुडे. सिंधी के साहित्यिक स्वरूप पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि हम फ्रेंच, जरमन, स्पैनिश जैसी भाषाओं को अधिक महत्व देते हैं और बच्चों से इन भाषाओं को सीखने के लिए कहते हैं. 

धीरे और नियमित रूप से सिंधी भाषा के व्यापक उपयोग पर जोर देने से ही सिंधी भाषा के विस्तृत चलन में सफलता मिलेगी. लोग साहित्य के माध्यम से सिंधी भाषा सीख सकते हैं. सिंधी भाषा को लेकर कार्यक्रम करने पर स्पॉनसर्स भी मिल जाते हैं 

सभी प्रतिभागियों ने झूलेलाल जी के नामों का विष्लेषण किया तथा उनका एक एक नाम कैसे और किस तरह पड़ा, इस बारे में चर्चा की, जैसे मछली पर सवार होकर अवतरित होने से उनका नाम ‘पल्लेवारो’ पडा. बेहराणा साहिब की विधि बताते हुए जानवी केसवानी और जया कृपलानी ने कहा कि थाली में लौंग इलायची डालकर उसे सजाया जाता है. उसमें दिया जलाया जाता है. पूजा के पश्चात उसका विसर्जन कर दिया जाता है. 

प्रतियोगिओं ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि अमृतसर दरबार में जिस तरह माथा टेका जाता है, उस प्रकार से साईं झूलेलाल के मंदिर में नहीं किया जाता है. हमें अपने ईष्टदेव के आगे इस प्रथा को कायम रखना चाहिए. माथा ढककर, रुमाल या टोपी पहनकर जाना चाहिए. माताओं और बहनों को भी सर ढंककर जाना चाहिए.  
उक्त जानकारी डॉ. वंदना  खुशालानी ने दी.
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