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रीतिकाल के संत कवियों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता : प्रो. डॉ. बबन चौरे



नागपुर/पुणे। हिंदी साहित्य का रितिकाल संवत्  1700 से 1900  तक माना जाता है। इस काल खंड में अनेक प्रसिद्ध कवि हुए हैं परंतु रितिकाल के संत कवियों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। इस आशय का प्रतिपादन प्रोफ़ेसर डॉ. बबन चौरे, अध्यक्ष, हिंदी विभाग, श्री बाबूजी आव्हाड, महाविद्यालय, पाथर्डी, अहमदनगर, महाराष्ट्र ने किया। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तरप्रदेश के तत्वावधान में आयोजित 123 वीं आभासी गोष्ठी में वे विशिष्ट वक्ता के रूप में अपना उद्बोधन दे रहे थे। 

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने गोष्ठी की अध्यक्षता की। 

प्रोफ़ेसर डॉ. बबन चौरे ने आगे कहा कि अब तक हम सिर्फ रीतिबद्ध, रितिसिद्ध, रीतिमुक्त कवियों की चर्चा करते रहे हैं। लेकिन इस काल खंड में संत कवियों की सुदीर्घ परंपरा रही है। वास्तव में निर्गुण कवियों को संत और सगुण कवियों को भक्त मानने की परंपरा भी आरंभ से है। मराठी साहित्य में सभी को संत कहा जाता है। हिंदी साहित्य के रीतिकाल के संत कवि और उनकी रचनाओं का योगदान संख्यात्मक दृष्टि से भक्ति काल से कई अधिक है। 

गुणात्मक दृष्टि से भी वह भक्तिकालीन कवियों से कम नहीं है। रीतिकाल में निर्गुण ज्ञानमार्गी, सूफी प्रेमाख्यान, राम भक्ति और कृष्ण भक्ति परंपरा का भी निर्वाह करते हुए अनेक प्रबंध और मुक्तक काव्य की रचना हुई। अतः रीतिकाल के संत कवियों के योगदान को पाठ्यक्रम के माध्यम से प्रकाश में लाने की आवश्यकता है। 

डॉ. शुभा तिवारी, भटगांव, छत्तीसगढ़ ने अपने मंतव्य में कहा कि संत काव्य के प्रवर्तक नामदेव जी माने जाते हैं। भक्ति काल के अपने चरमोत्कर्ष के पश्चात रीतिकाल में भी संत काव् धारा प्रवाहित होती रही, जिसमें यारी साहब, दरिया साहब, जगजीवन राम, चरण दास आदि संतों ने महत्वपूर्ण योगदान देते हुए परंपरा को पुष्ट किया। 

मुख्य अतिथि उप प्राचार्य प्रोफेसर डॉ. अरुणा राजेंद्र शुक्ल, नांदेड़ एजुकेशन सोसायटी, विज्ञान महाविद्यालय, नांदेड़, महाराष्ट्र ने कहा कि रीतिकाल का आधुनिक अर्थ शैली माना जाता है। रीतिकाल भौतिकवादी साहित्य का काल अवश्य था पर अपने समय की परिस्थितियों से प्रेरित और पुष्ट होकर रीतिकालीन साहित्य पांडित्य प्रदर्शन और कवि कर्म दोनों साथ साथ निभाता रहा। 
गोष्ठी में अध्यक्षीय समापन करते हुए संस्थान के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने कहा कि हिंदी साहित्य का  उत्तर मध्यकाल अर्थात रीतिकाल लगभग सन 1643 ई. से 1843 ई. तक माना जाता है। 

यह कालखंड ललित कलाओं के चरम उत्कर्ष का भी समय था। रीति  शब्द अधिक वैज्ञानिक है। रीतिकाल के संत कवियों ने भरपूर मात्रा में  काव्य रचना की है। अतः भक्ति काल के समान रीतिकाल भी हिंदी साहित्य का प्रबल आधार है। 

प्रारंभ में विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने प्रास्तविक में संस्थान की गतिविधियों पर प्रकाश डाला। गोष्ठी का शुभारंभ प्राध्यापक रोहिणी, डावरे, अकोले द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना से हुआ। प्रा. लक्ष्मीकांत वैष्णव, चांपा, जांजगीर, छत्तीसगढ़डब ने स्वागत भाषण दिया। 

गोष्ठी में प्रा. ठमधु भंभानी, नागपुर, डॉ. भरत शेणकर, राजूर डॉ. मधुर देशमुख, पुणे, डॉ. नजमा मलेक, नवसारी, गुजरात, रश्मि श्रीवास्तव 'लहर', लखनऊ, रीता यादव सहित अनेक प्रतिभागियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की। 


गोष्ठी का सुंदर व सफल संचालन एवं नियंत्रण डॉ. रश्मि चौबे, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश ने किया। श्रीमती पुष्पलता श्रीवास्तव ‘शैली’, रायबरेली, उत्तरप्रदेश ने आभार ज्ञापन किया।
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