आस
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तेरा प्यार भी ना कुम्हला जाए,
बूझते दिये के लौ की तरहा
तेरा प्रेम ना मद्धिम हो जाए।
पूर्णिमा की चाँद है तू
कहीं ग्रहण ना लग जाए,
मैं तकता रहूं गगन को आस लिए
और तू कहीं ना नज़र आए।
समय-समय की बात है,
अभी सुबह फिर रात है,
तेरी नटखट नजरें
अभी तकती हैं मुझे,
ग़र नज़र अंदाज हो जाऊं
खटकती यही बात है।
तू ओझल है नजरों से पर
यही बहुत है मेरे मीत,
महसूस होता रहे मुझे,
तू दूर सही,
पर दिल के पास है।
- डॉ. शिवनारायण आचार्य 'शिव'
नागपुर, महाराष्ट्र