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रीतिकाल में संस्कृत और रास शैली में नाटक लिखे गये : डॉ. प्रेरणा उबाळे



नागपुर/पुणे। संस्कृत से अनूदित होकर हिंदी साहित्य के इतिहास के रीति काल में संस्कृत और रास शैली में नाट्य रचना हुई। इस आशय का प्रतिपादन डॉ. प्रेरणा  उबाळे, अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मॉडर्न कॉलेज (स्वायत्त), शिवाजी नगर, पुणे, महाराष्ट्र ने किया। 

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में आयोजित 119 वीं आभासी राष्ट्रीय गोष्ठी में विशिष्ट वक्ता के रूप में वे उद्बोधन दे रही थी। ‘रीतिकाल के महत्वपूर्ण नाटक’ विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया गया था। 

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने गोष्ठी की अध्यक्षता की। डॉ. प्रेरणा उबाळे ने यह भी कहा कि, काव्य के सैद्धांतिक विवेचन करने वाले ग्रंथों की अपेक्षा रीति काल में लिखे गए नाटकों की संख्या कम ही हैं। 

रीतिकालीन नाटक विषय की दृष्टि से पौराणिक कथाओं के श्रीरामचरित, कृष्णचरित तथा आध्यात्मिक भाव से संबंधित रहे हैं। इस काल के नाटकों की तुलना भी पाश्चात्य नाटकों से की गई है। 

रीतिकाल के नाटकों में गीत, संगीत, नृत्य आदि लोक कलाओं का समावेश भी पाया जाता है। इसलिए वे रमणीय बन पड़े हैं तथा जन नाट्य शैली और कल्याणकारी भावना से ये नाटक ओतप्रोत रहे हैं। रीतिकाल में लगभग 40 की संख्या में नाटक लिखे गए। 

डॉ. सुगंधा हिंदू राव घरपनकर, अध्यक्ष, हिंदी विभाग, राजा शिवछत्रपति,  महाविद्यालय, मा हगांव, कोल्हापुर, महाराष्ट्र ने मुख्य अतिथि के रूप में अपने मंतव्य में कहा कि हिंदी नाटक को तेरहवीं सदी में स्वीकार किया गया है। 

‘कुमाररास’ को हिंदी का पहला नाटक माना जाता है। 1610 से 1850  ईसवी की अवधि में लगभग 14 नाटक प्राप्त होते हैं| रीतिकाल में हिंदी नाटकों की संख्या न के बराबर है, जिनमें न नाटकीय लक्षण थे और न मौलिकता। परिणामत: रीतिकाल के नाटकों में शास्त्रीय और पाश्चात्य प्रभाव की टकराहट दिखाई देती है। 

डॉ. रूपाली दिलीप चौधरी, हिंदी विभाग, डॉ. अन्नासाहेब जी डी बेंड़ाले महिला महाविद्यालय, जलगांव, महाराष्ट्र ने इस अवसर पर कहा कि रीतिकालीन नाटकों में रामायण महानाटक, हनुमान नाटक, समयसार नाटक, चंडी चरित्र, प्रबोध चंद्रोदय, मोह पराजय, चैतन्य चंद्रोदय, धर्म विजय, विद्या परिणय, अमृतोंदय, श्रीरामचरित शकुंतला नाटक जैसे महत्वपूर्ण नाटकों का समावेश पाया जाता है। निसंदेह रीतिकाल के नाटकों में सात्विक भाव का प्रदर्शन हुआ है। 

डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने अध्यक्षीय समापन में कहा कि रीतिकाल का गद्य साहित्य भक्ति काल की अपेक्षा अधिक है। रीतिकाल का ब्रजभाषा गद्य साहित्य खड़ी बोली गद्य की अपेक्षा अधिक विकसित व समृद्ध है। 

रीतिकाल में अल्प मात्रा में निर्मित नाटकों की अपनी विशेषता है। प्रारंभ में विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश ने प्रास्तविक भाषण दिया। 

प्रा. रोहिणी डावरे, अकोले महाराष्ट्र द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना से गोष्ठी की शुरुआत हुई। डॉ. सरस्वती वर्मा, महासमुंद छत्तीसगढ़ ने स्वागत उद्बोधन दिया। मंच संचालन डॉ. रश्मि चौबे. गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश ने सुचारु रूप से किया तथा पुष्पलता श्रीवास्तव ‘शैली’, रायबरेली, उत्तर प्रदेश में धन्यवाद ज्ञापन किया। 

इस आभासी गोष्ठी में संस्थान के महाराष्ट्र प्रभारी डॉ. भरत शेणकर, राजूर, हिंदी सांसद डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, छत्तीसगढ़ युवा संसद प्रभारी लक्ष्मीकांत वैष्णव, डॉ. सीमा वर्मा, नजमा बानू मलेक, गुजरात, अख्तर पठान, नासिक, डॉ. वासुदेव एकबोटे, पुणे, डॉ. मधुकर देशमुख, प्रा. मधु भंभाणी, नागपुर, राजन कुमार वर्मा, डॉ. मंगल ससाणे, प्रमिला कौशिक, दिल्ली, डॉ.  प्रतिभा येरेकार सहित अनेक प्रतिभागियों की उपस्थिति रही।
साहित्य 6088203672496840548
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