अधूरी ख्वाहिशें...
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तो पूरी उधर भी नहीं,
तृष्णा लब इधर भी है,
तो तृप्त उधर भी नहीं,
जद्दोजहद है यही जिंदगी की,
कोई जीत कर हारा, तो कोई हार के भी जीत गया,
गर क़तरा मैं हूं,
तो समन्दर तू भी नहीं।
हर रोज़ बेचती हूं मैं जिंदगी थोड़ी थोड़ी,
तेरा एक पल का साथ पाने के लिए,
खरीदार अगर मैं हुं,
तो सौदागर तू भी तो नहीं।
बुलंदियां शोर मचाती हैं बहुत,
गुम ना हो जाऊं, मिट्टी का मुसाफिर हूं,
पोरस मैं हुं
तो सिकंदर तू भी तो नहीं,
बड़ी बेकरार रहती हैं ये आंखें,
कितनी हसरत से तकती हैं,
तेरी एक झलक की मुंतजिर,
इन्हें और कोई आरजू भी नहीं,
बा–खबर गर मैं हूं तो बे–खबर तू भी तो नहीं।
- डॉ. तौकीर फातमा
कटनी (म.प्र.)