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अतृप्त तृषा



कुछ ख्वाहिशें अधूरी ही रहें तो अच्छा,
प्यास पूरी ना बुझे तो ही अच्छा।
तृप्त जो हो जाए तृष्णा,
तो आंखें तकेंगी किसके लिए, 
जो प्यास ही मिट जाए, 
तो तड़पेंगे किसके लिए,
पढ़ने वाले तड़पे कुछ तो, 
पत्र अधूरी ही लिखें, तो अच्छा।

जद्दोजहद है यही जिंदगी की,
मैं ना जीता कोई बात नहीं, 
तुम ना हारो प्रिये,
इसमें ही जीत है मेरी।
मैं वो क़तरा हूं बारिश का,
समन्दर में मिल जाऊं,  जी करता है,
वो राह हूं, 
भटक जाऊं जी करता है, 
मंजिल ही गर मिल गई, 
तो रे मुसाफिर, मज़ा किस बात का।
 
बिक जाऊं पूरी तरहा
तेरा एक पल पाने के लिए,
ना जाने कैसा सौदागर हूं मैं, 
बाजार में आया हूं, डूब जाने के लिए।

प्रियतमा, 
कैसा नशा है 
उतरने का नाम ना ले, 
कुछ यूं पिला दिया
क्या मिलाकर तूने,  
सब कुछ भूल, 
यूं ही मदमस्त रहूं 
तो अच्छा।

- डॉ. शिवनारायण आचार्य 'शिव'
   नागपुर (महाराष्ट्र)
काव्य 7751095241883582955
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