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पल !


पलक झपकते ओझल होते,
पल कुछ उड़ जाते ऐसे हैं।

कल तुतलाती बोली थी,
आज आवाज जोश की है,
कल फिर तुतलाती बोली होगी,
पल कुछ उड़ जाते ऐसे हैं।

कल जो रेंगते उठते गिर जाते थे
आज वो पर्वतारोही हैं,
कल फिर लाठी सहारा होगा,
पल कुछ उड़ जाते ऐसे हैं।

था गुमान इन अंखियों में
जिंदगी यूं ही गुल खिलाएगी,
कभी आसमान हम चूमते थे,
कल धरातल में मिल जाएगी।

पलक झपकते ओझल होते,
पल कुछ उड़ जाते ऐसे हैं।

- डॉ. शिवनारायण आचार्य 
नागपुर (महाराष्ट्र)
काव्य 6007712415757719479
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