सतगुरु बैद बचन बिस्वासा
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रामचरित मानस के अंत में व्यक्ति के मानसिक रोगों एवं उनके उपशमन के उपायोंका वर्णन किया गया है तथा मन की समस्त विकृतियों को नष्ट करने के लिए सतगुरु बैद की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
सामान्यत:व्यक्ति दो प्रकार की व्याधियों का शिकार होता है, शारीरिक एवं मानसिक, जो व्यक्ति को व्यथित बनाए रखती है। शारीरिक व्याधियों की चिकित्सा के लिए अनेक ग्रंथ व विभिन्न चिकित्सा पद्धतियां हैं। व्यक्ति अपनी सुविधानुसार कोई भी पद्धति का आश्रय ले सकता है किंतु शारीरिक रोगों की तुलना में मानसिक रोगों की समस्या अधिक जटिल है।
इसका कारण यह कि शारीरिक बिमारी से व्यक्ति स्वयं कष्ट पाता है किंतु मानसिक व्याधि से ग्रसित व्यक्ति न केवल स्वयं अपितु पूरे समाज के लिए भी घातक होता है। अत: मानसिक रोगों की चिकित्सा में सारे समाज का हित समाहित है।
मानस में शारीरिक रोगों के विश्लेषण की आयुर्वैदिक मान्यता के आधार पर ही मानसिक रोगों का निदान प्रस्तुत किया गया है। मानव शरीर में जिस तरह स्वस्थ रहने के लिए त्री धातुओं अर्थात कफ, वात एवं पित्त का संतुलन अनिवार्य होता है, उसी तरह मानसिक रोगों में भी त्री धातुओं अर्थात काम (वात), लोभ (कफ) एवं क्रोध ( पित्त) इन तीनों का समन्वय या संतुलन अनिवार्य माना गया है।
इन तीनों में 'काम' प्रेरक का कार्य करता है।मनुष्य के मन में उठनेवाला काम प्रेरक बनाता है। कामनाओं की पूर्ति पर व्यक्ति का लोभ बढ़ता है और जब कामनाओं की पूर्ति में बाधा पड़ती है तो क्रोध होता है। इस तरह व्यक्ति का सारा जीवन ही काम, क्रोध व लोभ द्वारा संचालित होता है इनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
किंतु इन तीनों में संतुलन बनाए रखना नितांत आवश्यक होता है।पूर्णतः:निष्काम तो कोई भी नहीं हो सकता।निष्कामता का अर्थ बिना किसी फल की आशा के कार्य करना है जैसे गीता में भगवान कहते हैं, 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते, मां फलेशु कदाचन्'
किंतु कामनाओं के साथ लोभ जुड़ा़ है, अर्थात संचय वृत्ति। यदि व्यक्ति के जीवन से इस वृत्ति को समाप्त कर दिया जाय तो भविष्य के लिए संरक्षण की भावना समाप्त हो जाएगी। सामाजिक जीवन की सुरक्षा के लिए लोभ की वृत्ति अनिवार्य है।
इसी तरह यदि मानव जीवन से क्रोध या आक्रोश को पूर्णतः समाप्त कर दिया जाय तो समाज से अन्याय मिटाने की वृत्ति समाप्त हो जाएगी। सारांश में काम, क्रोध व लोभ की मन में उपस्थिति न केवल मानव जीवन में बाध्यता है,अपितु आवश्यक भी है किंतु इनका अतिरेक स्वयं व्यक्ति के लिए ही नहीं पूरे समाज के लिए घातक है।
इनमें भी संतुलन आवश्यक है। पर सामान्य व्यक्ति के लिए इनमें संतुलन बनाए रखना संभव नहीं होता। ऐसे व्यक्ति बिरले ही होते हैं।काम ,क्रोध,व लोभ इन तीनों में से एक ही हो तो उपचार संभव है किंतु यदि तीनों ही प्रबल हों तो उनका उपचार असंभव हो जाता है। ऐसी स्थिति में मानसिक रोगों को दूर करने के लिए जिन साधनों का उपदेश किया गया है वे यदि एक दिशा में प्रभावशाली हैं तो दूसरी दिशा में वे दूसरी मानसिक विकृति के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं, तात्पर्य यही कि पूर्णतः: संतुलित महापुरुष बिरले ही मिलते हैं।
मानस में ऐसी मानसिक व्याधियों में संतुलन बनाए रखने के विकल्प दिए गए हैं जो समग्र मानसिक रोगों का निराकरण करने में समर्थ है।
प्रश्न है कौन है वह जो मानव को इन मानसिक रोगों से स्वस्थ कर सकता है, मुक्त कर सकता है। कारण रोगी स्वयं तो अपना ईलाज करने में असमर्थ होता है,भले ही वह स्वयं चिकित्सक ही क्यों न हो फिर भी उसे अपने रोग के निवारण के लिए अन्य चिकित्सक के पास तो जाना ही होता है, विशेष रूप से जब मानसिक रोगों की बात हो तब तो यह और भी अनिवार्य है कारण व्यक्ति को अपनी मानसिक स्थिति का स्वयं ज्ञान नहीं हो पाता बल्कि उसे तो अपनी अपेक्षा दूसरों में ही यह विकृति अधिक दिखाई देती है।
ऐसी स्थिति में केवल सद्गुरु बैद ही इलाज कर सकता है। मानसिक रोग ग्रस्त व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वह सद्गुरु की शरण ले।कारण संपूर्ण सृष्टि में ऐसा कोई व्यक्ति ही नहीं जिसमें किसी न किसी रूप में रोग विद्यमान न हो।अत: प्रत्येक व्यक्ति के लिए किसी सद्गुरु की नितांत आवश्यकता होती है, बस आवश्यकता है तो सद्गुरु के वचनों में विश्वास की, आस्था की।
एक बात और। सद्गुरु भव रोगों की औषधी तो देता है किंतु उसके साथ साथ परहेज भी उतना ही अनिवार्य होता है। अर्थात एक ओर व्यक्ति साधन तो करे किंतु दूसरी ओर विषयासक्ति में डूबा रहे तो उत्कृष्ट औषधि से भी पूर्ण लाभ की आशा नहीं की जा सकती। औषधी सेवन के साथ साथ अनुपान भी आवश्यक है।
अत: सद्गुरु वैद्य भक्ति की दवा के साथ अनुपान का मिश्रण देते हैं। क्या है ये अनुपान?यह है श्रद्धा और गुरु वचनों पर पूर्ण विश्वास। गुरु सत्संग, प्रवचन, मंत्र जाप, कथा श्रवण इत्यादि विभिन्न प्रकार की औषधियां देता है किंतु यदि इसमें श्रद्धा का अभाव हो तो निश्चित ही औषधियों का प्रभाव न्यून हो जाएगा।
सार यही कि यदि साधक मानसिक रोगों का उपयुक्त उपचार चाहता है तो गुरु के वचनों पर पूर्ण विश्वास करते हुए श्रद्धा युक्त अंत:करण से भक्ति साधना में लीन होना होगा ।जीवन की विकृतियों को दूर करने का यही एकमात्र उपाय है।
सुख शांतिमय, समृद्ध एवं स्वस्थ्य समाज के लिए न केवल शारीरिक अपितु मानसिक स्वास्थ्य भी अत्यंत अनिवार्य है,जिसकी आज के संदर्भ में तो नितांत आवश्यकता है अत:
: आज गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर हम अपने सद्गुरु के वचनों पर विश्वास कर सुख ,शांतिमय समाज निर्माण का शुभ संकल्प लें।
गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर,
शत शत नमन गुरुदेव
बंदउ गुरुपद कंज,कृपा सिंधु नररू हरि।
महामोह तम पुंज जासु वचन रवि कर निकर।
- प्रभा मेहता
नागपुर (महाराष्ट्र)