पुस्तक-समीक्षा : हिंदी हाइकु कोश में 'अ' से आरंभ हाइकु
- डॉ. रश्मि वार्ष्णेय, मुंबई, महाराष्ट्र
हिंदी हाइकु कोश (संपादक : डॉ. जगदीश व्योम) में 'अ' से आरंभ होने वाले 160 हाइकु 16 पृष्ठों में प्रस्तुत किए गए हैं, जो पृ. 41 से 56 तक प्रत्येक पृष्ठ में 10 हाइकु के मान से प्रकाशित हैं तथा विभिन्न स्रोतों से संग्रहित किए गए हैं। हाइकु-अंकुर के प्रस्फुटन से इन हाइकुओं का पल्लवन होना आरंभ होता है और अकेले ही अँधेरों से गुजरते हुए, अधूरेपन को पूर्णता प्रदान करते हुए, अपनी पारी खेलते हुए, अपनी कोरी बातें अस्फुट शब्दों से कहते हुए अमलतास-सा खिलता जाता है। पृष्ठ-दर-पृष्ठ पन्ने पलटते हुए ये हाइकु स्वयं को खोलते हुए इस तरह से बतियाते हैं :
पृ.41 : इस हाइकु कोश में विषय प्रवेश कराने का बीड़ा कमलेश भट्ट कमल ने उठाया है बीजों से फूटते अंकुर के माध्यम से, जिसे शार्दुला नोगजा ने आगे बढ़ाने का कार्य किया है और हरिराम पथिक ने अंकुर के प्रस्फुटन से निष्प्राण सूखे के बड़बोलेपन का अहं तोड़ कर व्यक्त किया है :
अंकुर फूटा
बड़बोले सूखे का
अहम टूटा
राजेंद्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’ ने अँगुलियों से आकाश नाप कर दिखाया है, तो सूरजमणि स्टेला कुजूर की माँ का ख्वाब बुनते हुए खुद को पकाना हृदय विदीर्ण कर देता है :
अँगीठी पर
माँ खुद को पकाती
ख्वाब बुनती
पृ.42 : दिनेश चंद्र पांडेय ने घटा को नया आयाम देने का प्रयास किया है :
अंधी भिक्षुणी
कटोरे में बटोरे
भीख घटा की
शैल रस्तोगी ने अँधियारे की फलियाँ छीलते हुए, सवेरे के आगमन का चित्र स्लो मोशन में साकार कर दिया है :
अंधी वीथी में
उतरा धीरे-धीरे
नया सवेरा
किरन सिंह ने भी नन्ही गौरैया के प्रेम की परिपूर्णता को नन्हे हाइकु में परिपूर्णता के साथ ढाला है :
अंडे पे बैठी
प्रेम में नहा कर
नन्ही गौरैया
पृ.43 : अँधेरे और उजाले में अर्बुदा पाल के मन में बैठे चोर के व्यवहार को सहज ही समझा जा सकता है। नीलमेंदु सागर ने घाटी के समसामयिक ज्वलंत विषय पर अपनी लेखनी की तलवार भाँजी है :
अँधेरी घाटी
आतंक मचा रही
धर्मांध हवा
पृ.44 : बीस हाइकुओं में पसरे अँधेरे के लंबे सिलसिले के बीच उमेश मौर्य के बच्चे अँधेरे का सामना करने के लिए हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं, तो सूरजमणि स्टेला कुजूर ने अपनी पैनी नजर से फटी चटाई पर जख्मी सपनों को देखा है :
अँधेरी रात
फटी चटाई पर
जख्मी सपने
पृ.45 : प्रदीप कुमार शर्मा का अकेले ही दुनिया बदलने के जज्बे को नमन !
अकेला तू ही
बदलेगा दुनिया
शुरु तो कर
जगदीश व्योम के गुलाब और कुकुरमुत्ता पर निराला की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।
पृ.46 : जितेंद्र कुमार मिश्रा ने अक्षय तृतीया पर बद्रीनाथ के पट खोले जाने की घटना को लिपिबद्ध किया है, जो सदैव नहीं होने के कारण भ्रमोत्पादक है। वर्ष 2022 में अक्षय तृतीया 03 मई को पड़ रही है, जबकि पट खोलने का मुहूर्त 08 मई का है।
पृ.47 : नरेंद्र मिश्र की परिकल्पना चाँद को पतंग का रूप दे देती है, जिसे पकड़ने के लिए बस पेड़ पर चढ़ने भर की देर है :
अटका चाँद
नीम की डाली पर
बना पतंग
वहीं अवनीश सिंह चौहान समझ नहीं पाते हैं कि वे जिंदगी भर किन रास्तों पर चलते रहे :
अजाने रास्ते
चलते रहे पाँव
जिंदगी भर
जीवन प्रकाश जोशी ने अजगर और चूहे के माध्यम से महानगर और गाँव की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
पृ.48 : अट्टालिकाओं से घिरे श्याम खरे के खपरैल उजालों की चोरी की दुहाई देते हुए आधुनिक नगरीय व्यवस्था पर कटाक्ष करती है। लेकिन समय के साथ अट्टालिका और खपरैल की स्थितियों में काफी फर्क आ चुका है। खपरैलें प्राय: समाप्त हो चुकी हैं और अट्टालिकाओं के आस-पास अब दूसरी अट्टालिकाएँ ही दिखाई देती हैं। दूसरी तरफ आभा खरे अपने अतिथि कक्ष के घटकों के आलंबन से प्रतीक्षा की व्यथा व्यक्त करती हैं :
अतिथि कक्ष
द्वार, पर्दे, बिस्तर
प्रतीक्षारत
प्रशांत शर्मा ने सीधे-सीधे शब्दों में कह दिया है कि अधूरे ज्ञान से अनादर होता है और मान घटता है।
पृ.49 : निवेदिताश्री के लुप्त अपनेपन से पाठक तादात्म्य स्थापित करता है :
अपनापन
अपनों में खोजना
रेत में सुई
तो शैलेंद्र चौहान के अनाथ बच्चों का सयानापन संवेदनाएँ झिंझोड़ देता है :
अनाथ बच्चे
समय से पहले
हुए सयाने
इससे अनमनी हुई कलियों को मनाने का दायित्व मानो अश्विनी कुमार विष्णु ने धूप को सौंप दिया है। इस धूप से पकते धान की गंध को जानते-पहचानते जगदीश व्योम ने अपने शब्दों के दाने हाइकु के रूप में परोस दिया है।
पृ.50 : सुरंगमा यादव के सुख-दुख की बदलती पारी निर्वेद की अवस्था में ले जाती है :
अपनी पारी
सुख-दु:ख खेलते
आ बारी-बारी
ज्ञानेंद्र साज भी अंतर्मुखी हो कर अपने कर्म-दर्पण में स्वयं को निहारते हैं।
पृ.51 : मीनू खरे ने अपार्टमेन्ट संस्कृति की विडंबना की तरफ ध्यानाकर्षित किया है, जिसमें व्यक्ति के पास न जमीन रह जाती है और न ही आसमान उसका उपना हो पाता है।
अपार्टमेन्ट
नभ-धरा के बीच
टँगे हैं लोग !
पृ.52 : मिथिलेश दीक्षित कहती हैं कि अब मिली है जीवन की डायरी अर्थात अपने जीवन की डायरी की बात कर रही हैं, फिर उस पर पता के होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है।
अब मिली है
जीवन की डायरी
पता गायब
पृ.53 : विटप पर अमरबेल की जनेऊ की परिकल्पना में आदित्य प्रताप सिंह की मौलिकता की छाप है, लेकिन विटप को नष्ट करने का उसका गुणधर्म उसे सोहने नहीं देता है। अमरबेल के स्थान पर किसी अन्य लता-बेल का उल्लेख ज्यादा उपयुक्त होता।
अमरबेल
विटप पर सोहे
विप्र-जनेऊ
पृ.54 :वंदना वात्स्यायन ने अमीर तोंद बनाम गरीब पेट को परंपरागत तरीके से ही प्रस्तुत किया है, लेकिन ढोने का भाव गरीब की तरफ से अमीर पर कटाक्ष है, तो अमीर की तरफ से गरीब को बोझ के रूप में भी निरूपित करता है :
अमीर तोंद
सदियों से ढो रहा
गरीब पेट
बिंदूजी महाराज बिंदू की अम्मा के कुशलक्षेम का दर्द चुभता है, तो इंदिरा किसलय की अम्मा की लोरी भीगे फाहे-सी नींद में सुला देती है।अम्मा की लोरी
पलकों पर नींद
भीगे फाहों सी
पृ.55 : सविता मिश्र के पतझर-बसंत का विरोधाभास स्वत: स्पष्ट हो जाता है।
पृ.56 : जागे हुए अहं के साए में निद्राग्रस्त विनीता तिवारी की साफगोई झलकती है।
अहं ये मेरा
जागा रहा हमेशा
सोती रही मैं
लेकिन श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी के ताड़-खजूर के अहं का कारण स्पष्ट नहीं होता है और उनके दूर खड़े होने की प्रतीति भी नहीं होती है। बाकी तुकबंदी सही है।
अहं में चूर
खड़े सबसे दूर
ताड़, खजूर
इन पेड़ों से भी ऊँचे पर्वतों का, झरना के माध्यम से, वनों से बातें करना पूरा बिंब प्रस्तुत कर देता है। अहा... सूर्यभानु गुप्त।
इन हाइकुओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि विषय की विविधता और अनुभूति के विभिन्न स्तरों को छूते हुए हाइकु की यह जापानी विधा अब हिंदीमय हो चली है।