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शाहिद कबीर : ऊर्दू के विख्यात शायर जदीद शायरी के बानी


जन्मदिन पर विशेष याद

नागपुर। ऊर्दू के विख्यात शायर श्री शाहिद कबीर साहब का जन्मदिन 1 मई को मनाते हैं और इनका इंतकाल 11 मई को हुआ था।
नागपुर में जन्म लिए शाहिद कबीर साहब विदर्भ में जदीद शायरी (modern poetry) के बानी की हैसियत से जाने जाते हैं। शुरूवात उन्होनें नसर  निगारी और अफसाना निगारी से की। उन्हों ने दो नॉवेल भी लिखे। 'कच्ची दीवारे और फासले'

बाद में शायरी करने का फ़ैसला किया। उनकी कई किताबें उनकी जिन्दगी में ही शाए हो कर मकबूल हो चुकी। १९५८ में मिर्ज़ा ग़ालिब इस ड्रामे के सक्रीन राइटर रहे। जो राष्ट्रपति भवन देल्ही में पेश किया गया उन्होनें हिन्दुस्तानी फिल्मों के लिऐ भी गीत लिखे और कई यादगार ग़ज़लें कहीं जिन्हें हिंदुस्तान और पाकिस्तान के मशहूर सिंगर्स ने अपनी आवाज से लोगों तक पहुंचाया। इन फनकारों में सब से अज़ीम तरीन नाम लता मंगेशकर का है। 'चारों ओर' उनकी मुरत्तिब कर्दा मजमुआ मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी के कोर्स में शमिल किया गया। उन्हें अपनी किताब, 'मिट्टी का मकान और पहचान' के लिए महाराष्ट्र उर्दू अकेडमी की जानिब से पहला इनाम दिया गया।

शाहिद कबीर दरअसल एक पैदाइशी तख्लीक कार थे। अगर वो शायर ना होते तो भी अपनी तख्लीकी उपज का कोई और रास्ता ढूंढ लेते। कम लोग जानते हैं कि अपनी नव उम्री के ज़माने में वो स्टेज अदाकारी भी कर चुके हैं।
शाहिद कबीर के अस्लूब और अल्फाज़ के चुनावों में एक क्लासिकल तर्ज़ की एहत्यात और सलीका मंदी थी। एक खास क़िस्म का सजीला अलबेला पन उनकी शायरी में जारी व सारी दिखाई देता है।

वो अपने हर शेर की नोक पलक संवार कर उसे दुलहन की तरह सजा कर पेश करते थे। हर लफ्ज़ शेर में एक नगीने की तरह जड़ा होता था। उन के कलाम की खास बात लफजो का रख़ रखाओ और रचरचाओं है जिसे लफ्जों में नही बांधा जा सकता। सिर्फ मेहसूस किया जा सकता है।

फ़िर उसी धज से सरे राह खड़े है शाहिद।
वहीं अंदाज़ फाक़ीराना सादाओं वाला।।

रेत की लेहरों से दरिया की रवानी मांगे।
मै वो प्यासा हूं जो सेहराओं से पानी मांगे।।

जैसे गुल होती चली जाए चारागो की क़तार।
जब कोई रूठ के जाता हैं तो मंज़र देखो।।

देखता है झांक कर बाहर किसे।
मै यहीं अंदर हूं दरवाज़ा लगा।।

जा के मिलता हूं ना अपना ही पता देता हूं।
मै उसे ही नहीं खुद को भी सज़ा  देता हूं।।

ताकत नहीं लड़ती है लड़ा करती हैं हिम्मत।
टूटे हुऐ बाज़ू को भी पतवार समझना।।

चलने की तमन्ना थीं पहुंचते की नहीं थी।
अब डूब भी जाऊं तो मुझे पार समझना।।

अब लोग तरस जायेगे आवाज़ को मेरी।
गुंजूं का फिज़ाओं में सुनाई नहीं दूंगा।।

इस दर्जा भी हों जाऊंगा बेगाना जहां से।
मिलना तो रहा दूर दिखाई नहीं दूंगा।।

शाहिद सदा लगाने से पहले ये सोच लो।
सदियों के बाद भी तुम्हे दोहराएगी सदा।।

सिर्फ़ रंगत नहीं ख़ुशबू भी जुदा हो जिसकी।
खुद को वो कैसे छुपाए गा जहां भी होगा।।

- डॉ. अलमास कबीर जावेद

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