जीवन वसंत...
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हवा मंद मंद बहे लेकर सुगंध रे।।
आमों पर छा जाए, मौर मकरंद रे
बागों में गा जाए, कोयल नव छंद रे।।
बिन बाजा, बिन ध्वजा, आयो वसंत रे।
कोयल की कूक, भ्रमरों की गुंजन, वन पंछियों की चहक, मंजरियों की महक, पीली पीली सरसों से लदे खेत,शीतल मंद सुगंध, और फूलों के बिखरे बिखरे रंग! सब एक साथ सूचना देते हैं, ऋतुराज वसंत के आगमन की। हां ऋतुराज!, ऋतुओं का राजा। पर आता है यह बिन बाजा, बिन ध्वजा ।प्रकृति खिल खिल उठती है उसके आगमन पर, उसके स्वागत में ,मानों नृत्य कर रही हो, ऋतुराज के शुभागमन पर।
ऋतुराज के इस सौंदर्य ने कवियों साहित्यकारों के मन को भी खूब लुभाया है, खूब गुदगुदाया है।
आद्य कवि वाल्मिकी का ऋतु वर्णन यदि राम काव्य की विशेषता है, तो कालिदास ने ऋतुओं पर संपूर्ण काव्य 'ऋती संहार' ही लिख डाला। जयदेव विहरति हरिरिव सरस वसंते गाते हैं,
तो हरिश्चंद्र, खेलत वसंत राधा गोपाल,
इत ब्रजबाला, उत ग्वाल बाल,
गाकर रम जाते हैं रादधा गोपाल के वसंत में।
वसंत का आगमन होली के एक माह पूर्व ही होता है ,अतः कृष्ण लीला के माध्यम से उन्होंने वसंत का वर्णन किया है।
मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत में षट ऋतुओं का वर्णन करते हुए वसंत का उद्दीपन के रुप में वर्णन किया है -
आवै ऋतु वसंत जब,तब मधुकर तब बासू ,
जोगी जोग जो इमि करै,सिद्धी समापत तासू।
तो आधुनिक कवियों के मन को भी वसंत ने खूब आकर्षित किया है।
सुमित्रानंदन पंत का वसंत
मधुपों के संग कर मधु गुंजन,
मंजरियों में पिरो स्वर्ण कण
दिशी ,दिशी में नवफूल बाण भर,
मन्मथ मुसकाया।
इन शब्दों में मुसकाता है।
और महादेवी का वसंत आता है तो 'वन मे हर्ष भर जाता है, नवोत्कर्ष छा जाता है।'
वहीं सुभद्रा कुमारी चौहान प्रश्न पूछती है -
वीरों का कैसा हो वसंत? हो रस विलास या दलित त्राण?
वसंत पर मुग्ध होकर इसतरह विभिन्न भावों से कवियों, साहित्यकारों की कलमों ने रंग बिखेरे हैं किंतु प्रश्न है क्या केवल कूलन में कछारिन में बनन में बागन में ही वसंत आता है ? क्या वसंत किसी मौसम का नाम है जो निश्चित तिथा पर निश्चित समय पर आता है? हां प्रकृति में आता है निश्चित तिथी पर समय पर वसंत, पतझर के बाद। पर क्या हम मानवों के जीवन में भी ऐसे ही निश्चित सभय पर वसंत आता है? शायद नहीं।
वसंत तो वास्तव में मानव मन की वह अवस्था है, जब वह उमंग ,उत्साह, उछाह से परिपूर्ण होता है। यह तो एक अनुभूति है, अमूल्य अनुभव। जीवन की यह अमूल्य अनुभूति, अनुभव जब मार्ग दर्शक बनकर उसे मार्ग दिखाती है, ,जीवन को हर्ष, उल्लास व आनंद से भर देती है, तो जीवन वसंत हो जाता है।जब हमारे अंतर मन में कुछ अच्छा करने का भाव जगता है, तब मुस्कुराता है, खिलता है वसंत हमारे आसपास।
वसंतमय जीवन के लिए हमें अपने को टटोलने की अपने अंतस में झांककर देखने की, आत्म मंथन करने की आवश्यकता है कारण वसंत कोइ वस्तु नहीं, मन की वह अवस्था है जब वह आनंदित होता है, तृप्त होता है। तात्पर्य वसंत को हमें अपने अंदर खोजना होता है। वस्तु की तरह इसे न खरीदा जा सकता है ,न उधार लिया जा सकता है। हमें कमाना पड़ता है इसे, अपने को घिसना होता है, मिटना भी होता है तब कहीं आता है जीवन में वसंत।
मौसम में भी पीत पत्र झड़ते हैं,त्याग करते हैं तभी कोमल कोमल, गुलाबी कोंपलें फूटती हैं वृक्षों पर, पौधों पर। वस्तुतः जहां त्याग है, समर्पण का भाव है वहीं है वसंत । तब फिर वसंत को कहीं ढूंढने नहीं जाना पड़ता है।तो वसंत और आनंद सहोदर हैं।जहां आनंद है वहीं है वसंत! विषाद, अवसाद, निराशा से वसंत का कोई रिश्ता नहीं।
किसी भी व्यक्ती, समाज व राष्ट्र के जीवन में भी वसंत तभी आता है जब वसंत अंदर जगता है, हर्ष , उमंग की कोपलें अंदर फूटती हैं, अंदर बहार आती है।
- प्रभा मेहता
नागपुर, महाराष्ट्र