केवल पारस्परिक सद्भाव और प्रेम द्वारा ही अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है : स्वामी विवेकानन्द
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स्वामी जी की वाणी आज भी सामर्थ्यवान व ओजस्वी है !
मैं तुम लोगों को फिर एक बार याद दिला देना चाहता हूँ कि कोसने, निंदा करने या गालियों की बौछार करने से कोई सदुद्देश्य पूर्ण नहीं हो सकता। लगातार वर्षों तक इस प्रकार की कितनी ही चेष्टाएँ की गयी हैं, पर कभी अच्छा परिणाम प्राप्त नहीं हुआ। केवल पारस्परिक सद्भाव और प्रेम द्वारा ही अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है।
- स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान 'वेदान्त का उद्देश्य' से उद्धृत (कुंभकोणम में दिया गया व्याख्यान)
अमेरिका से लौटकर भारत-भूमि पर स्वामी विवेकानंद के हृदय के उद्गार थे ये शब्द। भारत में अंग्रेजों का शासन था। गुलामी का समय था। स्वामी जी की वक्तृता और उनकी आध्यात्मिक शक्ति से अमेरिका और यूरोप अभिभूत हो चुके थे। फिर भी उनके मन में अपनी महत्ता का कोई अभिमान न था। वे बार-बार अपने भाषणों में 'पारस्परिक सद्भाव और प्रेम' की जीवन में आवश्यकता और उनके महत्व को रेखांकित करते रहे। सैकड़ों वर्षों की दासता की बेड़ियों में जकड़े रहने के बावजूद भारतीयों के मन से आत्मगौरव का भान तिरोहित नहीं हुआ था। बस इस छिपे आत्मगौरव बाहर आने के लिए एक प्रेरक व्यक्तित्व की आवश्यकता थी। और इस आवश्यकता की पूर्ति ईश्वर ने स्वामी विवेकानंद के आविर्भाव के रूप में की।
नरेंद्र नाथ दत्त के रूप में कलकत्ता के प्रसिद्ध एटाॅर्नी श्री विश्वनाथ दत्त के घर में 12 जनवरी 1863 को जन्म लेकर श्रीरामकृष्णदेव के सान्निध्य में शरण पाकर जिन्हें आध्यात्मिक स्वरूप में प्रवेश मिला, वे ही परवर्ती काल में संन्यस्त होकर स्वामी विवेकानंद के नाम से विश्वविख्यात हुए। आज कौन है जो उनके नाम से परिचित नहीं है! लगभग 39 वर्ष 6 महीने की छोटी सी आयु पाकर 4 जुलाई 1902 को देहत्याग कर धर्म के क्षेत्र में इतना कुछ कर पाना एक देवमानव के ही वश की बात है। स्वामी जी का संसार के उत्थान हेतु किया गया योगदान अविश्वसनीय शक्ति द्वारा किया गया कार्य है। वह भी उस समय जबकि हर तरह के संसाधनों का परम अभाव था, स्वामी जी ने मात्र अपने व्यक्तित्व व चरित्र के बल से पूरे विश्व को हिला डाला था।
आज के समय में जबकि धर्म के नाम पर कितनी सारी हिंसक विभाजक रेखाएं खींचकर समाज को अपने गर्हित स्वार्थों की पूर्ति के लिए बांटा जा रहा है, स्वामी जी की वाणी के अनुसरण में हम सबका मार्ग आलोकित करने की सामर्थ्य निहित है। वे जाफना में दिए गए अपने ओजस्वी वक्तव्य में जोर देकर कहते हैं : 'अति प्राचीन काल से यह स्वीकृत रहा है कि ईश्वर की उपासना की कितनी ही पद्धतियाँ हैं। यह भी माना गया है कि भिन्न-भिन्न स्वभाव के मनुष्यों के लिए भिन्न-भिन्न मार्ग आवश्यक हैं। ईश्वर तक पहुँचने का तुम्हारा रास्ता, संभव है, मेरा न हो। संभव है, उससे मेरी क्षति हो।
यह धारणा कि हर एक के लिए एक ही मार्ग है, हानिकर है, निरर्थक है और सर्वथा त्याज्य है। यदि हर एक मनुष्य का धार्मिक मत एक हो जाए और हर एक एक ही मार्ग का अवलंबन करने लगे तो संसार के लिए वह बड़ा बुरा दिन होगा। तब तो सब धर्म और सारे विचार नष्ट हो जाएँगे। सब लोगों की स्वाधीन विचारशक्ति और वास्तविक विचारभाव नष्ट हो जाएँगे। वैभिन्य ही जीवन का मूलसूत्र है। इसका यदि अंत हो जाए तो सारी सृष्टि का लोप हो जाएगा। यह भिन्नता जब तक विचारों में रहेगी तब तक हम अवश्य जीते रहेंगे। अतएव इस भिन्नता के कारण हमें लड़ना नहीं चाहिए तुम्हारा मार्ग तुम्हारे लिए अत्युत्तम है, परंतु हमारे लिए नहीं। मेरा मार्ग मेरे लिए अच्छा है, पर तुम्हारे लिए नहीं।'
स्वामी जी की वाणी हमें एक शताब्दी से भी अधिक समय से हमारे मार्ग को आलोकित करती रही है और आज भी उनकी वाणी उतनी ही सामर्थ्यवान और ओजस्वी है। आवश्यकता है तो बस इतनी कि हम उनके दिखाए मार्ग पर चलने के लिए खुद को संकल्पबद्ध कर सकें।
प्रयागराज (उ. प्र.)