क्या हमें प्रतिदिन बाह्य प्रेरणा (मोटीवेशन) के अधीन होना चाहिए ?
मेरा रूझान लेखनी और गूढ़ विचारों की ओर होने की वजह से मैं कुछ चुनिंदा कॉन्टेक्ट्स का ही स्टेटस चेक करती हूँ, जिनके पोस्ट्स से हमेशा कुछ प्रेरणा मिलती हो। इससे समय की बर्बादी कभी नहीं होती, बल्कि विचारों को विस्तार मिलता है।
इसी ध्येय से स्टेटस देखते हुए एक दिन मेरे एक प्रेरणास्रोत के स्टेटस में एक उद्धरण मिला "टुडे वी डोंट हैव एनी मोटिवेशनल कोट, इफ यू वांट टू गीव अप, गीव अप।" मतलब... 'आज हमारे पास कोई प्रेरणादायक उद्धरण उपलब्ध नहीं है, जो जी में आये आप स्वतंत्र हो, हार मान के बैठो या कुछ भी करो।'
यह पढ़कर पहले तो मुझे हंसी आई, मैंने अपने बच्चों से भी साझा किया और वे भी हंस पड़े, लेकिन सच तो ये है कि इस पंक्ति ने मेरे मन समंदर की लहरों में बेहद उथल-पुथल पैदा कर दिया।
ऐसा लगा मानो उसे पढ़ते समय मेरी दृष्टि हीरे की खदान खोदने जैसी रही हो, जिसमें हमारा ध्यान सिर्फ़ हीरे की ओर ही केन्द्रित रहता है, मिटटी को हम नजरअंदाज कर देते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपनी गुणात्मक प्रवृत्तियों के कारण हर व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति में कुछ न कुछ अच्छा व कल्याणकारी सन्देश ग्रहण कर मानसिक, बौद्धिक, नैतिक संपन्नता के साथ व्यक्तित्व उन्नयन में सतत प्रयत्नशील रहता है।
जीवन की वास्तविकताओं से परिचित होता जाता है और आने वाली चुनौतियों के लिये तैयार रहता है।
वैसे तो आबाद प्रेरणाएं कायनात में व प्रत्येक के जीवन में बिखरी पड़ी है। हमारे आस-पास मनुष्य ही नहीं प्रकृति ने हमें अनगिनत प्रेरणास्रोतों से नवाजा है, जिन्हें सूचीबद्ध करने की ज़रूरत नहीं, बस व्यक्ति को उन्हें धैर्यपूर्वक ढूँढने व ग्रहण करने की जिज्ञासा होनी चाहिए।
इसलिए क्या हमें प्रतिदिन अतिरिक्त प्रेरणा के अधीन होना चाहिए? क्या हमें रोज कोई धकेलने वाला चाहिए? ईश्वर ने हमें इतना कमज़ोर तो नहीं बनाया। हमें यह पूर्ण विश्वास होना चाहिये कि अपने जीवन को संवारने व संभालने की सारी शक्तियां हमारे अंदर ही निहित है।
अतिरिक्त बाह्य प्रेरणा बेशक व्यक्ति को उत्साहित करती हैं, जिससे कुछ लोग लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ते है, लेकिन जीवन यात्रा में खुद को ठेला (रेहड़ी) व बाह्य प्रेरणा को "ठेला (रेहड़ी वाला) ढकेलने वाला श्रमिक" बनाने की आदत नहीं डालनी चाहिए।
अपने अस्तित्व को पहचान कर, आत्म निरीक्षण करते हुए सहजतापूर्वक आत्म विकास में लगे रहें तो हम अपने भविष्य की भूमिकाओं के संदर्भ में सजग, समर्थ व सशक्त रहेंगे इसमें कोई संशय वाली बात नहीं। इसी सन्दर्भ में चंद पंक्तियाँ जो ईश्वर कृपा से कुछ समय पहले मेरे चिन्तन से उद्धृत हुआ था..
"किसी के पाँव के निशानों को देखकर
उसी राह को अपनाने की ज़रूरत नहीं,
अपना रास्ता ख़ुद तलाश,
रास्ते पर टाॅर्च भी ख़ुद जलाता चल;
रास्ते की चुनौतियों से भी अकेले निपट,
थक के न बैठ हौसला रख;
देखना मंज़िल कुछ बिल्कुल नया सा होगा,
ऐसा, जहाँ पहले कोई न गया होगा।"
- शशि दीप
shashidip2001@gmail.com
मुंबई