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जैन कुल में पैदा हुए हैं पंच परमेष्ठी की आराधना करें : आचार्यश्री पुलकसागरजी


नागपुर। जैन कुल में पैदा हुए हैं पंचपरमेष्ठी की आराधना करें यह उदबोधन जिनशरणम तीर्थ प्रणेता भारत गौरव राष्ट्रसंत आचार्यश्री पुलकसागरजी गुरुदेव ने विश्व के सबसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय ऑनलाइन सर्वोदय धार्मिक शिक्षण शिविर में दिया. श्री दिगंबर जैन क्षेत्र कुंथुगिरी, नवग्रह तीर्थ, धर्मतीर्थ क्षेत्र द्वारा आयोजित इस शिविर में एक लाख तक शिविरार्थियों की संख्या पहुच गई हैं. घर बैठे अनेक माध्यमों द्वारा निःशुल्क अनेक श्रावक-श्राविकाएं शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. 

प्रखर वक्ता आचार्यश्री पुलकसागरजी गुरुदेव ने शिविर में कहा शिविर का अनूठा उपक्रम हैं, इसके पूर्व ऐसा शिविर हुआ ही नहीं. आचार्यश्री गुणधरनंदीजी गुरुदेव और आचार्यश्री गुप्तिनंदीजी गुरुदेव के प्रेरणा, संकल्पना से शिविर का आयोजन धार्मिक शिक्षा की ओर सभी को प्रेरित किया हैं. मुझे इस शिविर में जुड़ने और पढ़ाने का मौका मिला हैं. गणाधिपति गणधराचार्य कुंथुसागरजी गुरुदेव के अमृत महोत्सव पर शिविर का आयोजन प्रशंसनीय और सराहनीय हैं, अपने गुरु के प्रति उपकार करने का अवसर हैं. 

दोनों आचार्यों ने अनेक साधु संतों से समन्वय कर विश्व का सबसे बड़ा आयोजन किया हैं. गुरुदेव ने आगे हमारे पांच परमेष्ठी होते हैं. जो परम पद में स्थित हो उसे परमेष्ठी कहते हैं. अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु यह पांच परमेष्ठी हैं. जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश किया हो, जो केवलज्ञानी हो, सशरीर हो समवसरण गंधकुटी में अनंत चतुष्टय सहित विराजमान हो उन्हें अरिहंत परमेष्ठी कहते हैं. जिन्होंने आठ कर्मों का नाश किया हो शरीर रहित हो, जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया हो जो संसार में लौटकर नहीं आते उन्हें सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं. 

जिनेन्द्र दो हैं, आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी यह तीन हैं. यह तीनों परमेष्ठी आहार ग्रहण करते हैं. अरिहंत परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी, साधु परमेष्ठी विहार करते हैं, उपदेश देते हैं. आचार्य, उपाध्याय, साधु यह हमारे गुरु हैं, आचार्य, उपाध्याय, साधु यह व्यवस्था हैं, वह साधु हैं.  जो मुनि संघ के नायक हो, संघ का संचालन करते हैं, दीक्षा, शिक्षा, प्रायचिश्त देते हैं उन्हें आचार्य परमेष्ठी कहते हैं. धर्म का अनुशासन रखने के लिए आचार्य होते हैं. चतुर्विध संघ में मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका होते हैं. 

आचार्य संग्रह, अनुग्रह, निग्रह करते हैं. समाज को जोड़ते हैं, शिष्यों का संग्रह करते हैं. समाज संरक्षण, तीर्थ संरक्षण आचार्य करते हैं. समाज का दोष दूर करते हैं. व्रतियों को दोष लग जाता हैं तो प्रायचिश्त देते हैं. आचार्य अपने संघ के शिष्य को उपाध्याय परमेष्ठी बनाते हैं. उपाध्याय परमेष्ठी पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं. आचार्य धर्म संरक्षण, तीर्थ संरक्षण और अन्य धार्मिक कार्यो में व्यस्त हो, उनके पास समय नहीं हो ऐसे समय आचार्य संघ के शिष्य को उपाध्याय बनाते हैं. जो नग्न दिगंबर हो, केश लोंच करते हो, पिच्छि, कमंडल रखते हो, शरीर श्रृंगार से रहित हो, ज्ञान ध्यान में लीन रहते हो, 28 मूलगुण के धारी हो उन्हें साधु परमेष्ठी कहते हैं. कोई भी परमेष्ठी वस्त्र नहीं पहनते. 

साधु किसी को पढ़ा नहीं सकते, दीक्षा नहीं दे सकते, संघ में रहकर साधना करते हैं, संघ के अनुशासन का पालन करते हैं. संघ की संख्या बड़ी हो जाती हैं, संघ के व्यवस्था के दृष्टि से आचार्य की आज्ञा से पृथक विहार करते हैं. संघ में हो या पृथक विहार कर रहे हो आचार्य की आज्ञा का पालन करना पड़ता हैं. जो विषय वासना से दूर रहते हैं वह साधु होते हैं. जो पंचपरमेष्ठी, जिनेन्द्र भगवान की आराधना करता हैं वह जैन हैं. जैन कुल में पैदा होनेवाले बच्चे को 45 दिन बाद णमोकार महामंत्र सुनाया जाता हैं. जैन कुल में पैदा हुए हैं पंचपरमेष्ठी की आराधना करें.

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