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पानी भी हुआ बे पानी...


रलोभ लालच और अहंकार की
महामारी से ग्रसित हे मानव
विकास के नाम पर
क्यों तूने प्रकृति को छेडा़
बहती नदियों के प्रवाह को रोका
गिरी श्रंगों को तोडा़
घने जंगलों को काटा
और प्रकृति के प्रकोप को न्योता
प्रकृति का यह प्रचंड प्रकोप
ले डूबा न जाने कितने लोग
न जाने कितने बहे,कितने डूबे
कितने अपनों से बिछडे़
और कितने मासूमों ने
माता  पिता की गैदी में दम तोडे़
चारों ओर पानी, पानी, और पानी
देव भूमी लाशों से पटी
चीत्कार, चीखें चिल्लाहट
भय, रुदन, क्रंदन
प्रकृति का ये कैसा नग्न नर्तन
हे मानव तूने छोडा़ अपना पानी
ईसीलिए पानी भी हुआ बेपानी
और शिव ने तांडव की ठानी।


- प्रभा मेहता

नागपुर, महाराष्ट्र

काव्य 7662237388549326195
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