Loading...

लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर


31 मई जन्मदिवस विशेष 

देवी अहिल्याबाई होलकर ने मानव जीवन के मूल्यों को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई थी । सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय के सिद्धांत पर चलकर उन्होंने प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण को बढ़ावा दिया था। जल जंगल और जीव की रक्षा, शिक्षा चिकित्सा और सुरक्षा के नीतिगत प्रबंध की बदौलत मातोश्री ने लोकमाता बनकर आमजन के दिलों पर  राज किया था। चींटी से हाथी तक नभ जल थल की थाती तक का व्यापक दृष्टिकोण उनके पास था। 

पुण्यश्लोका द्वारा किए गए जनकल्याणकारी कार्यों की एक लम्बी सूची है। उन्होंने परमार्थ के कार्यों से जुड़े प्रकल्पों को भौगोलिक दृष्टि से अपने राज्य की सीमाओं तक सीमित नहीं रखा था, बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष का पूरा ध्यान रखा था। देवी मां ने काशी से कलकत्ता तक का राजमार्ग बनाकर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया था।

31 मई सन् 1725 ई.में महाराष्ट्र के चौंढी ग्राम के पाटील धनगर चरवाहे मानकोजी शिंदे के यहां जन्मी वीरवाला को जीव + वन अर्थात जहां वन है वहां जीवन है की शिक्षा वंशानुगत प्राप्त हुई थी। उस समय भारतीय समाज में महिलाओं का स्थान गौण था। नारी शक्ति को शिक्षा व विकास के अवसर नहीं थे। ऐसे कठिन काल में अहिल्याबाई ने ऊपर उठकर एक पृथक पवित्र और प्रेरक पहचान बनाई थी। बालिका अहिल्या की असाधारण प्रतिभा और कुशाग्रबुद्धि को उनके पारखी पिता ने पहचान लिया। और उनकी शिक्षा - दीक्षा के विशेष प्रबंध किए। 

चौंढी गांव के समीप एक सैनिक पड़ाव के दौरान मल्हाराव होलकर ने जब इस भक्ति भाव वाली संस्कारवान निड़र कन्या के तेज को देखा तो वे काफी प्रभावित हुए। मल्हाराव होलकर के आग्रह पर अहिल्याबाई का विवाह उनके पुत्र खंडेराव होलकर के साथ सन् 1733 ई. में सम्पन हुआ।       अहिल्याबाई होलकर युवरानी बनकर इंदौर में आ गईं। वे अपने सेवाभावी असाधारण गुणों की छाप छोड़ती हुई जीवन पथ पर अग्रसर होती गईं। उन्होंने सन् 1745 ई. में पुत्र मालेराव एवं सन् 1748 ई.में पुत्री मुक्ताबाई को जन्म दिया। 

खंडेराव होलकर अपने पिता की भांति दर्जनों सैन्य अभियानों में व्यस्त रहे। सन् 1754 ई.में राजस्थान के कुम्हेर दुर्ग के घेरे के दौरान खंडेराव होलकर वीरगति को प्राप्त हुए। अहिल्याबाई होलकर को 29 बर्ष की युवा अवस्था में ही वैधव्य की आग में झुलसना पड़ा। ससुर मल्हाराव के अनुरोध पर अहिल्याबाई ने सती होने का इरादा त्याग दिया। 

उन्होंने राजपाट के कार्यों में सहयोग ही नहीं किया, बल्कि कुशल शासन प्रबंध की बारीकियों को समझा और सैन्य शिक्षा में दक्षता हासिल की। सन् 1766 ई.में मालवाधिपति मल्हाराव होलकर की मृत्यु और उसके बाद बीमारी के कारण सन् 1767 ई.में पुत्र मालेराव के निधन का उन्हें बडा आघात लगा। अत्यन्त विकट परिस्थितियों में उन्होंने होलकर राज्य की बागडोर संभाली।
 
       प्रजा सुखे सुखं राज्ञा:प्रजानाश्च हिते हितम ।
       नात्मप्रियं सुखं राज्ञा: प्रजानाश्च सुखे सुखम।।

अर्थात प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है-और प्रजा के हित में ही उसका हित है। अपना प्रिय राजा का सुख नहीं,उसका सुख तो प्रजा के सुखी रहने में ही है। आचार्य चाणक्य के अर्थ शास्त्र की उपरोक्त उक्ति को प्रात:स्मरणीय लोकमाता ने चरितार्थ किया था‌। वे कहा करती थीं - ईश्वर ने मुझे जो दायित्व दिया है ,उसे निभाना है। मेरा काम प्रजा को सुखी रखना है। मैं अपने प्रत्येक कार्य के लिए जिम्मेदार हूं। ईश्वर के यहां मुझे उसका ज़बाब देना है। इसी आत्म विश्वास के कारण मातोश्री अपने प्रत्येक कार्य को करने से पहले उसे जनहित की कसौटी पर कसती थीं।

उन्होंने शासन संभालते ही लगान पद्धति में सुधार किया। राज्यकोष वे स्वयं देखती थीं। मल्हाराव होलकर के निधन के समय होलकरों की गंगाजली में 16 करोड रूपए जमा थे,जो उनकी पत्नी गौतमा बाई के नाम से स्त्रीधन के रूप में रखे गये थे। यह राशि देवीश्री को स्त्रीधन के रूप मिली जिसे खासगी कहा गया था। होलकर राज्य के प्रशासनिक धन को दौलती कहा गया। 

मातोश्री ने दौलती धन का उपयोग नहीं किया। अपने खासगी धन द्वारा ही देशभर में जनकल्याणकारी सद्कार्य संचालित किए। यह खासगी खजाना उन जागीरों से भरता था ,जो स्वयं महारानियो को प्राप्त होती थीं।  लोकमाता ने  महेश्वर को अपनी राजधानी बनाया ‌। इस कारण महेश्वर धार्मिक व राजनैतिक कार्यों का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया। 

उन्होंने तेलंगाना, गुजरात,रत्नगिरी तथा नर्मदा के तट पर निवास करने वाले विभिन्न विषयों के विद्वानों को संरक्षण दिया। देश के चुने हुए वेद - पुराण शास्त्री,व्याकरण के ज्ञाता, ज्योतिष नक्षत्र के जानकार, औषधियों पर पकड़ रखने वाले वैध, भक्ति संगीत के कीर्तनकारों को महेश्वर में बसाया गया। उन्हें मकान, जमीन,धन आदि की पूरी सहायता प्रदान की गई। संस्कृत की पाठशाला शुरु करवायी। शिल्पी, कारीगर, मूर्तिकारों एवं चित्रकारों को प्रोत्साहन देकर आश्रय प्रदान किया। 

देवीश्री ने चार धाम, सातपुरी, बारह ज्योतिर्लिंगों सहित हजारों स्थानों पर मन्दिर, धर्मशाला, कुए, बाबडी, घाट, विद्यालय एवं औषधालयों के निर्माण कराऐ। हमें अपनी शोध यात्राओं के दौरान मातोश्री द्वारा निर्मित अनेक स्थानों को देखने का मौका मिला। ये सारे निर्माण कार्य अत्यंत सुंदर, भव्य व सुदृढ़ हैं। भारत की वास्तुकला के श्रैष्ठ उदाहरण हैं। कई मंदिरों में मूर्तियां भी बहुत कला पूर्ण हैं। उनकी करुणा व स्नेह की शीतल छाया मनुष्यों तक सीमित नहीं थी। 

पशु पक्षियों के लिए अनाज के भंडार व फसलों से भरे कई खेत छोड़ दिये जाते थे‌। चींटियों के लिए वन में आटा व मछलियों के लिए आटे की गोलियां बहुत बड़ी मात्रा में रोज जलाशयों में छोड़ी जाती थीं। अजापाल सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की तरह उन्होंने पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए बड़े बड़े चरागाहों की स्थापना की थी‌। वन्य जीव एवं पशुओं के लिए विशाल जलाशय बनबाये। तीर्थ क्षेत्रों के आसपास बसे चरवाहों को भूमि तथा पशु खरीद कर दिये जाते थे, ताकि आने वाले तीर्थ यात्रियों को निशुल्क दूध मिल सके।  

ग्रीष्म ऋतु में अनेक स्थानों पर प्याऊ संचालित की जाती थीं। ठंड से बचाव हेतु गरीबों को कम्बल बांटें जाते थे। ‌इन सभी कार्यों के लिए जगह-जगह कर्मचारी नियुक्त थे। ऐसा नहीं कि मातोश्री मात्र हिन्दू धर्म को बढ़ावा देती थीं। वे सभी धर्म सम्प्रदायों के प्रति उदार थीं। उन्होंने देश की कई मस्जिदों व दरगाहों को भूमि एवं धन दिया। वे अनेक मौलवी, फकीरों को नियमित रीति से दान देती थीं। देवीश्री ने 3175 मदिंरों का व 250 पीर स्थानों का जीर्णोद्धार किया।

जल संरक्षण में अहिल्याबाई होलकर के योगदान की चर्चा आज पूरी दुनिया में होती है। अनेक शोधार्थी इस विषय पर कार्य कर रहे हैं। गंगा, यमुना, सिंधु, नर्मदा,ताप्ती, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, शिप्रा सहित अनेक नदियों के तट पर विश्ववंदनीय अहिल्याबाई होलकर द्वारा किए गए कार्य उनकी दूरगामी सकारात्मक सोच को बयान करते हैं।
 
       दशकूपसमा वापी दशवापीसमो ह्लद:।
       दशह्लदसम: पुत्र: दशपुत्रसमो द्रुम:।।
 
अर्थात लोकल्याण की दृष्टि से दस कूओं के समान एक बाबडी का महत्व है,दस बाबडियों के समान एक तालाब का,दस तालाबों के समान एक पुत्र का,और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष का महत्व है। अभिप्राय यह है कि दस पुत्र अपने जीवन काल में जितना लाभ पहुंचाते हैं, उतना लाभ एक वृक्ष पहुंचा देता है। आज पूरे विश्व में पर्यावरण को लेकर बातें होती हैं, लेकिन एक भारतीय वीरांगना ने ढाई सौ बर्ष पूर्व वृक्षों के महत्व को जान लिया था। 

उनके शासन काल में प्रत्येक किसान को बड़, पीपल, नीम आदि के 20 पौधे लगाना और उन्हें पोषित करना अनिवार्य था। मार्ग के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगाए जाते थे। बंजर भूमि पर भील, गोंड आदिवासियों द्वारा वृक्ष लगाने से उन्हें रोजगार मिलता था। होलकर राज्य में झाड़ तोड़ना अपराध माना जाता था।  उन्होंने जहां भी निर्माण कार्य करवाए वहां हरियाली के लिए खास इंतजाम किए। उनके शासन काल में एक करोड़ से अधिक पौधे लगाए गये। 

मातोश्री ने कुम्हेर के गांगरसौली गांव में अपने पति के स्मारक को शौर्य तीर्थ के रुप में विकसित किया। वहां 22 बीघा भूमि पर सुंदर बागीचा लगवाया, दो कुएं एक तालाब एवं सिंचाई के लिए पक्की नालियों बनाई गई। भरतपुर के राजा सूरजमल ने तीन गांवों की आय छत्री के रखरखाव के लगा दी थी। आलमपुर भिंड में देवीश्री ने मल्हारराव होलकर की भव्य छत्री निर्मित कराने के साथ साथ एक मनमोहक उपवन विकसित करवाया जो आज भी अच्छी स्थिति में है। छत्री बाग इंदौर के वृक्ष भी अपनी मौजूदगी का अहसास करवाते हैं।

महारानी अहिल्याबाई होलकर जानती थीं कि देश की उन्नति के लिए कृषि और व्यापार का विकास जरुरी है । उन्होंने किसानों की समस्याओं का निराकरण किया। व्यापारियों के हितों का भी ध्यान रखा। स्वदेशी वस्त्र व्यवसाय को प्रोत्साहन दिया। अनेक जुलाहों को महेश्वर में बसाया। उनको करघे लगाने के लिए सहायता उपलब्ध कराई। आज भी महेश्वरी साड़ियां समूचे विश्व में खास पहचान रखतीं हैं। देवी मां की महानता के अनेक आधार थे। 

उनकी न्यायपूर्ण शासन प्रणाली, सर्वधर्म सदभाव की नीति, प्रचुरमात्रा में रोजगार के साधन, गरीब-निर्बल लोगों को पूर्ण संरक्षण, सुरक्षा के कड़े प्रबंध, मूलभूत सुविधाओं से जुड़े संवेदनशील महकमे, आपसी भाई चारे की भावना के कारण उनका 28 बर्ष का शासन काल भारतीय इतिहास में विशेष महत्व रखता है। मातोश्री ने सुशासन के मूल भूत तत्वों को अपने जीवन में उतार कर प्रजा को सुखी रखने में पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली थी। उनकी इन नीतियों के कारण प्रजा बड़ी सम्पन्न एवं सुखी थी। 

आमजन ने उन्हें जीवन काल में ही देवी मां के रुप में मान्यता प्रदान कर दी थी। ‌उन्होंने लोगों को महेश्वर में ही बसाया ऐसा भी नहीं था। उनके शासन काल में छैनी- हथौड़ा कभी बंद नहीं हुए थे। देश की चारों दिशाओं में उनके निर्माण के कार्य चलते रहते थे। रोजगार मिलने के कारण लोग एक क्षेत्र से दूसरे भाग में बस गये। काशी में उन्होंने ब्रह्मपुरी नाम का एक मोहल्ला बसाया। जिसमें उन्होंने उच्च विचारों वाले धर्म शास्त्र के ज्ञाता विद्वान् ब्रह्मामणों को देशभर से आमंत्रित कर बसाया था। 

मातोश्री ने अनेक सम्पर्क मार्गों के निर्माण कराये । काशी से कलकत्ता तक 600 किलोमीटर लंबे राजमार्ग का निर्माण भारतीय नारी रत्न अहिल्याबाई होलकर द्वारा किया जाना उनके व्यापक दृष्टिकोण को उच्च शिखर पर स्थापित करता है। अकेले काशी नगर में उन्होंने उन दिनों 21 मंदिर, धर्मशाला, अन्न क्षेत्र तथा स्नान घाट आदि निर्मित करवाये जिन पर करीब 5 करोड रुपए खर्च हुए। 

मथुरा में बसा अहिल्या गंज गांव आज भी अहिल्याबाई होलकर की यादों को ताजा कर रहा है। उससे थोड़ी आगे लाल पत्थर से निर्मित बाबड़ी, वृंदावन में चैनबिहारी मंदिर, अहिल्या कुंज, चीर घाट, कालियादेह घाट के शिलालेख लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करवाते हैं। 

केदारनाथ, बद्रीनाथ, हरिद्वार (उत्तराखंड), सोमनाथ (गुजरात), जगन्नाथपुरी (उड़ीसा), पुष्कर, नाथद्वारा (राजस्थान), उज्जैन, ओंकारेश्वर, अमरकंटक, महिदपुर, (मध्य प्रदेश), अयोध्या, प्रयाग, काशी, चित्रकूट (उत्तर प्रदेश), बौद्धगया (विहार), रामेश्वरम, श्रीशैल मल्लिकार्जुन (तमिलनाडु), बेरुल (कर्नाटक), जेजूरी, पंढरपुर, त्र्यंबकेश्वर (महाराष्ट्र), कुरुक्षेत्र (हरियाणा) सहित इतने स्थान हैं जिनका उल्लेख एक लेख में नहीं बल्कि एक ग्रंथ में ही हो पायेगा। 

अंधकार में दिव्य ज्योति रुपी देवी मां ने दुर्ग और देवालयों सहित अनेक स्थानों पर दीप स्तंभ स्थापित कर प्रकाश की सुविधा प्रदान की। उन्होंने न्याय व्यवस्था के लिए प्रमुख स्थानों पर न्यायाधीशों को नियुक्त किया था। उनके सुयोग्य मार्ग दर्शन व कडे नियंत्रण में न्ययालय व पंच पटेल न्यायदान का कार्य बड़े कुशलतापूर्वक सम्पन्न करते थे। जो लोग उपरोक्त न्यायधीशों के न्याय से सन्तुष्ट नहीं होते वे बिना रोक - टोक के मां के दरबार में अपील कर सकते थे। मातोश्री न्यायासन पर बैठकर सारे प्रकरण स्वयं देखती। लोगों की देवीश्री के प्रति इतनी श्रद्धा थी कि उनके निर्णय को अमान्य करना लोग महापाप समझते थे।

मातोश्री दयालु, परोपकारी थीं। यह सर्व विदित है, लेकिन जब कभी किसी ने उनके राज्य की ओर आंख उठाने का साहस किया तो वे रणचण्डी बनकर युद्ध के मैदान में पहुंच जाती थीं। उनके जीवन में कई बार ऐसे मौके आये जब उन्होंने अपने सहास , शौर्य और पराक्रम के बल पर अपनी तलवार की पैनी धार से दुश्मन को नतमस्तक कर दिया था।  

एक बार जब रामपुरा के चन्द्रावत राजपूत विद्रोह पर उतारु हो गये तो करीब 63 बर्ष की उम्र में अहिल्याबाई ने स्वयं महेश्वर से रामपुरा के लिए सैन्यबल सहित कूच किया। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध ज्वाला नामक तोप को लश्कर के साथ किया। जमकर युद्ध हुआ चन्द्रावतों के प्रतापी सरदार सोभागसिह को पकड़कर तोप के मुंह से बांधकर उडा दिया गया। सारे विद्रोही मातोश्री की शरण में आ गये। विजय का समाचार जब पूना में पहुंचा में  तो नाना फडनवीस ने जीत का उत्सव मनाया। देवी मां के सम्मान में तोपें दागी गईं।

मातोश्री जानती थीं कि शासन एक भोग का न होकर महान योग, श्रेष्ठ साधना व गंभीर उत्तर दायित्वों से भरा अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है। शिव भक्त अहिल्याबाई होलकर अपने हस्ताक्षर शंकर आज्ञा लिखकर करती थीं। उन्हें संस्कृत, मराठी, हिन्दी व मोड़ी के लेखन व अध्ययन का पूरा ज्ञान था। देवी मां की सेना युद्ध विधा में निपुण व अनुशासित थी। उनकी सेना में पांच सौ प्रशिक्षित महिलाओं का एक दल अलग से था। तत्कालीन राजे - महाराजे उन्हें बडा सम्मान देते थे। 

अनेक नरेश, जागीरदार, ज़मींदार देवी के प्रति गहरी श्रद्धा रखते थे। सीतामऊ, देवास, बड़वानी, झाबुआ व अन्य कई राज्यों के शासक उनकी सलाह लेते थे। महाप्रतापी महादजी सिंधिया,वीर श्रेष्ठ तुकोजीराव होलकर जैसे योद्धा भी उन्हें मां कहकर सम्बोधित करते थे। महेश्वर, चांदवड, सेंधवा, असीरगढ़, जालना, कुशलगढ, हिंगलाजगढ़ के किलों में सुयोग्य अधिकारियों के अधीन सेना हमेशा तैनात रहती थी। राज्य के अठारह सरंजामी सरदारों के अधीन अलग से सैन्यबल था। 

मातोश्री सरदारों की प्रतिष्ठा व सुख सुविधाओं का पूरा ख्याल रखतीं साथ ही उन पर पूरा नियंत्रण भी रखती थीं। देश के प्रमुख राजदरबारों में उनके वकील मौजूद थे। डाक व्यवस्था के लिए संदेश वाहक अलग से नियुक्त किए गए थे। पत्रवाहक कासिद कहलाते थे। अहिल्याबाई ने चांदी व तांबे के सिक्के ढलवाए थे। 13 अगस्त सन् 1795 ई.को देवी मां ने इस दुनिया से विदाई ली। उसी समय उनकी प्रिय गाय श्यामा ने भी प्राण त्याग दिए। 

मातोश्री के विषय में तत्कालीन कई लेखक व कवियों ने उनकी गरिमा व महिमा को बड़े भाव पूर्ण शब्दों में लिखा है। संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि खुशहालीराम ने अहिल्या कामधेनु नामक एक प्रसिद्ध ग्रंथ रच डाला। मराठी कवि मोरोपंत ने उनकी स्तुति लिखी। स्कालैंड की कुमारी जोना बेली ने एक लम्बी कविता में उनकी महानता व गुणों का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि अहिल्याबाई ने तीस बर्षों तक शांतिपूर्वक राज किया। 

उनके समय में राज्य का ऐश्वर्य बढ़ता ही गया। सभ्य और असभ्य, बूढ़े और जवान सब उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे ‌‌। वे इतने विशाल राज्य की शासिका थीं, लेकिन सादगी की प्रेरणा मूर्ति थीं। वे जमीन पर बैठकर अपने राज्य का संचालन करतीं थीं। उनका निवास स्थान बिल्कुल साधारण था। यदि वे चहातीं तो एक बड़े विशाल भू-भाग पर विश्व का सर्वश्रेष्ठ आलीशान महल बना सकतीं थीं। 

मातोश्री के सद्कार्यों में वेद और विज्ञान एवं सृष्टि के सम्मान का समावेश था। वे शिव भक्त थीं, लेकिन अंधभक्त नहीं थीं। उन्होंने शिव और शक्ति को चराचर के साथ जोड़कर मानव को मानवता का पाठ पढ़ाने का गौरव पूर्ण कार्य किया था। उन्होंने रुढ़िवादी परम्पराओं को तोडा और पुरुष प्रधान राष्ट्र में नारी के मान - सम्मान और स्वाभिमान को पुनर्जीवित किया। 

सदियों से आज तक उनकी गद्दी पर नियमित पूजा अर्चना होती आ रही है। देश भर के श्रद्धालु अपनी मनौती पूरी होने पर मां के मंदिर में पहुंचते हैं। आज आवश्यकता है शासन प्रशासन और आमजन के लोग मातोश्री के आदर्शों से प्रेरणा लेकर जनहित के कार्य करें। देश भर में विखरी पड़ी उनकी पुरा सम्पदा को संरक्षण मिले‌‌। यही लोकमाता के प्रति सच्ची श्रृद्धा और भक्ति होगी। 

- घनश्याम होलकर 
वरिष्ठ पत्रकार एवं इतिहासकार 
लेख 1941780722424744869
मुख्यपृष्ठ item

ADS

Popular Posts

Random Posts

3/random/post-list

Flickr Photo

3/Sports/post-list