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वे भी क्या दिन थे...



वे भी क्या दिन थे
जब घरमें एक दादी हुआ करती थीं।
बाबूजी जब भी किसी बात पर डांटते,
या कभी हाथ उठ जाते, तो
झट आंचल में छुपा लिया करती थीं 

परिक्षा कितने नंबरों से पास की, पूछती नहीं थी
इसकी कोई फिक्र भी नहीं थी,
बेटी पास हो गई, बस
उसकी बहुत खुशी थी।

हाथ पकड़ रामायण, भागवत की
कथा सुनाने ले जाती थी।
मौसम के फल पास बैठा
बडे़ चाव से खिलाती थी,

स्कूल जाते समय चुपके से
दो आने मुट्ठी में रख देती थी।
जाडे़ के दिनों में रजाई में छिपा
कहानियां सुनाती थी, और

गर्मी के दिनों में पंखा हाथ में ले
धीरे धीरे झलती थीं।
गर थोडा़ बिमार पडे़ तो,
सिरहाने बैठ  बाल सहलाती ,

लाड़ लडा़ती, दवा पिलाती,
सच कितना सुख, कितना चैन
कितना प्रेम, कितनी खुशी
मिलती थी घर मेंं, जब
एक दादी हुआ करती थीं।

पर अब दादी क्यों अवांछित हो गई हैं
वृद्धाश्रमों की ठोकरें खा रही हैं,
हमारे मन, हमारी भावनाएं, प्रेम
सब कितने संकुचित हो गए हैं
क्यों हम अपने में ही सिमट कर रह गये हैं।

- प्रभा मेहता,
नागपुर, महाराष्ट्र
काव्य 9148801291621132632
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