भगवान् महावीर : प्रजातंत्रात्मक शासन की सुखदायी शुरुआत
25 अप्रैल भगवान महावीर की 2620 वें जन्म कल्याणक पर विशेष लेख
बिहार प्रान्त के नालंदा जिले में स्थित कुण्डपुर नगरी में महाराजा सिद्धार्थ के गृह में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन जन्मे भगवान महावीर का हम इस वर्ष 2620 वां जन्म कल्याणक महोत्सव मनाने जा रहे हैं। भगवान महावीर की माता त्रिशला देवी लिच्छवी गणतंत्र के अधिपति महाराजा चेटक की पुत्री थी। कुण्डपुर लिच्छवी गणराज्य के अंतर्गत एक ईकाई था। भगवान महावीर से पूर्व 23 तीर्थंकरों के लंबे काल में राजतंत्रीय व्यवस्था थी। भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी राजा चेटक (माता त्रिशला के पिता) ने लिच्छवी गणराज्य को सशक्त सुव्यवस्थित रूप प्रदान कर गणतंत्रात्मक शासन पद्धति का आदर्श प्रस्तुत किया था। राजकुमार महावीर ने तीस वर्ष की अवस्था तक गणतंत्रीय परम्पराओं को दार्शनिक एवं व्यवहारिक रूप दिया। इस प्रकार आधुनिक प्रजातंत्रीय शासन पद्धति का जन्मदाता वैशाली का लिच्छवी गणराज्य है।
भगवान महावीर के समय वैशाली गणतंत्र की राजधानी थी। गणतंत्र का नाम भी वैशाली था। उसके अधीन 9 मल्ल, 9 लिच्छवी, काशी - कौशल के 18 गणराजे थे। वैशाली के अंतर्गत 18 गणराजाओं का उल्लेख कल्पसूत्र (सूत्र 28), भगवती सूत्र (शतक उद्देशक 9), निरयावलिका, आवश्यक चूर्णि आदि ग्रंथों में मिलता है। नौ लिच्छवी का संघ 'वज्जी संघ' के नाम से प्रसिद्ध था। वज्जि संघ के सदस्य राजा (गणपति) कहलाते थे। उन सब के ऊपर एक प्रधान गणपति या राज प्रमुख होता था। उस समय राजा चेटक वज्जि संघ के प्रमुख थे और भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे।
भगवान् महावीर के समय उक्तानुसार जिस प्रकार से गणतंत्रीय व्यवस्था की सुदृढ़ नीवं पड़ी, उसे हम आज प्रजातंत्रीय व्यवस्था के रुप में साक्षात देख रहे हैं, राजा चेटक ने भी शायद यह कल्पना नहीं की होगी कि छब्बीस सौ वर्ष पूर्व जिस गणतंत्रात्मक व्यवस्था को उन्होंने जिस प्रकार अपने राज्य व्यवस्था में स्थापित किया था, उसकी लगभग 2600 वर्ष बाद इस प्रकार धूम होगी, उनकी शासन पद्धति को प्रजातंत्र की माता के नाम से सम्मानित किया जावेगा। समग्र दृष्टि से, भगवान महावीर की जन्म भूमि को गंणतंत्र ज्ञान, श्रद्धा और कर्म तथा धर्म संघ की व्यवस्था का ठोस आधार बना विश्व को आविर्भूत किये हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् महावीर के अवतरण होते ही प्रजातंत्र के रूप में एक लोक - कल्याणकारी व्यवस्था ने अपने पंख पखारने शुरू कर दिए थे।
भगवान महावीर का कहना था कि मनुष्य जन्म से न तो दुराचारी होता है और न सदाचारी, बल्कि उसके कर्म ही उसे जातिमूलक, दैवमूलक व्यवस्था के विपरीत पुरुषार्थवादी कर्ममूलक व्यवस्था निर्धारित करते हुए उदघोष किया कि मनुष्य जन्म से नहीं अपितु कर्म से महान बनता है, अतः महान बनने के लिए आवश्यक है कि ऐसे कार्य किए जायें, जिनसे किसी भी प्राणी को कष्ट न हो।
यही कारण है कि उन्होंने शारीरिक (कायिक) हिंसा के साथ - साथ वैचारिक हिंसा के त्याग पर बल दिया। मन के विचार ही वाणी में प्रकट होते हैं और यदि मनोमय शरीर में हिंसा के विचार जन्मतें हैं तो कालांतर में वे ही आगे जाकर कायिक यानि शारीरिक हिंसा का मार्ग प्रशस्त करते हैं, अतः भगवान ने मन में उठने वाली, दूसरों के लिए कष्ट देने वाले विचारों को भी हिंसा का नाम दिया। अतः उन्होंने मन को हर स्तर पर पवित्र बनाने पर बल दिया।
भगवान महावीर ने कहा कि धर्म वही है, जिसमें विश्व बंधुत्व की भावना हो, 'खुद जीओ और दूसरों को जीने दो' पर निहित हो। जहाँ प्राणी का हित नहीं वहां धर्म सम्भव नहीं। जीवन में 'परस्परोग्रहो जीवानाम' की भावना चरितार्थ करना आवश्यक है, क्योंकि संसार में जितने जीव हैं वे एक दूसरे का उपकार करके ही जी सकते हैं, अपकार करके कोई जी नहीं सकता, अपकार करने वाला कदापि सुख-शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता।
प्राचीन काल में परस्पर उपकार की भावना होने से ही जीवन सुखमय था, क्योंकि उस समय आदान - वरदान अत्यधिक सुगम था, व्यक्ति एक जैसे कार्यों के लिए अपना पारिश्रमिक नहीं लेते थे, बल्कि एक-दूसरे के विचारों, कार्यों व् श्रम का विनिमय करते थे। इसलिए उस समय का मानव आर्थिक संकटों से पीड़ित नहीं था, किन्तु धर्माचरण के लिए व्यक्ति धर्मान्धों और पाखंडियों के चक्कर में इतना फंसा हुआ था कि स्वविवेक का कभी प्रयोग नहीं करता था, मात्र पशु - नर बलि रूप निद्य पापाचरण को ही पुण्याचरण मान बैठा था, ऐसे समय आवश्यकता थी उनके स्वविवेक को जगाने की, उनकी आत्मा में प्राणी मात्र के प्रति करुणाभाव विकसित करने की और यह कार्य किया भगवान् महावीर स्वामी ने अपने सर्वोदय - तीर्थ के माध्यम से।
भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित सर्वोदय का तात्पर्य था, मनुष्य के अन्तर में विद्यमान सद्गुणों का उदय, क्योंकि सद्गुणों के द्वारा ही मनुष्य अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है और विकारों पर विजय प्राप्त करने पर ही व्यक्ति अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। सर्वोदय तीर्थ के अंतर्गत परिग्रह एक ऐसा सिद्धान्त है, जो व्यक्ति को अकर्मण्य से कर्मण्य और कर्तव्य परायण बनाने की प्रेरणा देता है, साथ ही पर से निज की और निज से पर की ओर जाने का संकेत भी अर्थात पहले स्वयं आचरण निर्मल बनायें, बादमें अपने जैसा चारित्रवान बनने की दूसरों को प्रेरणा दे।
यानि पहले अपने व्यक्तित्व निर्माण को गति दे, पहले खुद सुधरे तो दूसरा सुधरे, को चरितार्थ करे।
भगवान् महावीर के जन्म के समय समाज में जो व्यवस्थाएं चल रही थी उसमें जन्म के आधार पर ऊंच - नीच, के साथ छोटे बड़े की भावनाओं ने हमारे समाज को अनेक टुकड़ों में बांट रखा था। असामाजिक विसंगतियों, अमानुषिक कु - प्रथाओं और निर्दयतापूर्ण रूढ़ियों से उस समय का वातावरण भरा हुआ था। जनता में व्याप्त मर्यादा - विहीन संकीर्णताओं और स्वार्थ - प्रेरित अनैतिक प्रवृतियों ने मनुष्य के भीतर की मानवता का चेहरा बदलकर उसे पाशविक रूप तक पहुंचा दिया था।
धर्म के नाम पर घोर हिंसा एवं बर्बरता चल रही थी। 'धार्मिक हिंसा हिंसा न भवति' - धर्म के लिये की गई हिंसा, हिंसा नहीं है - ऐसे मिथ्या वचन हिंसा को दूर - दूर तक प्रचारित और प्रतिष्ठित कर रहे थे। गरीब नर - नारियों और बच्चों को पशुओं की तरह सरे बाज़ार नीलाम करके गुलामी की नारकीय स्थितियों में जीवन भर के लिए जकड़ दिया जाता था। पशु - यज्ञों के आयोजन यत्र - तत्र सुनाई देते थे और कई बार कहीं - कहीं नर यज्ञ की भी चर्चाएं सुनी जाती थी।
भगवान् महावीर उच्च जाति या नीच जाति जैसे शब्दों के कभी पक्षधर नहीं रहे। जब जब जातिवाद की आवाज उठी, उन्होंने घोषित किया कि व्यक्ति जन्म से नहीं, कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होता है। कुछ ऐसे संदर्भ प्राप्त होते हैं कि महावीर ने केवल ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों को ही अपने संघ में दीक्षित नहीं किया अपितु उस काल में निम्न समझी जाने वाली विभिन्न जातियों या छोटे वर्ग के लोगों को भी दीक्षित कर उनका आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया, यही कारण है कि उनके समोशरण में न केवल मनुष्य, नारी एवं पशु को भी स्थान मिला।
ये सब उनके आत्म कल्याण की सर्वोच्च स्थिति थी जिसको उन्होंने राजसी जीवन का त्याग कर बीहड़ जंगलों में खतरनाक शेर चीतों के बीच कठोर तपश्चर्या कर प्राप्त किया था। इसके कारण उनके आभामंडल में दूर दूर तक आने वाले अत्यंत द्वेष रखने वाले दुर्जन लोग एवं क्रूर पशु तक में अत्यंत निर्मलता आ जाती थी और वे जीव अत्यंत प्रेम, वात्सल्य, शान्ति एवं समरसता से भर जाते थे।
भगवान महावीर का विश्व एवं विश्व के छोटे छोटे जीव जंतु के प्रति किए गए हित को इस संक्षिप्त लेख में प्रस्तुत करना संभव नहीं है, उस योगदान को दर्शाने के लिए तो बीसों पुस्तकें भी कम है किंतु मैंने विश्व की कुछ चुनिंदा समस्याओं का उनके दृष्टिकोण से निवारण की दृष्टि से इस लेख को कुछ बिंदुओं पर सीमित किया है।
इसके लिए मैंने महावीर जयंती स्मारिका 2013 एवं 2014 से इन्हीं बिंदुओं से सम्बंधित प्रकाशित अलग अलग लेखों से कुछ सामग्री ली है जिससे लेख अपने कल्याणकारी उद्देश्य में सफल हो, इस हेतु उक्त लेखकों के साथ स्मारिका के प्रति साभार के साथ ये प्रस्तुतिकरण है। उक्त संदर्भ में तथ्यपूर्ण विस्तारपूर्वक जानकारी उक्त स्मारिकाओं से ली जा सकती है।उक्त सब के साथ हम सही अर्थों में कह सकते हैं कि भगवान् महावीर के विराट व्यक्तित्व ने समाज को सही अर्थों में सामाजिक समरसता, सभी वर्गों के बीच बंधुत्व, प्रेम, शांति एवं एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना जगाने एवं विकसित करने के प्रति अविस्मरणीय योगदान दिया।
प्रस्तुति - ज्योतिर्विद महावीर कुमार सोनी
1356, गोधा भवन, पीतलियों का रास्ता,
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