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एकल परिवारों के कारण परिवार विघटन की समस्या बढ़ रही हैं : प्राचार्य डॉ. शहाबुद्दीन शेख



नागपुर/पुणे। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हमारें देश में एकल परिवार की परंपरा आरंभ हुई तब से परिवार के टूटने और बिखेरने की समस्या विकराल रूप धारण रही हैं। इस आशय का प्रतिपादन विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उ. प्र. के अध्यक्ष प्राचार्य डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे ने किया। 

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, लखनऊ, उ. प्र. के तत्वावधान में 'टूटते परिवार, बिखरता बचपन' विषय पर आधारित आभासी गोष्ठी में वे अध्यक्षीय उद्बोबोधन दे रहे थे।

श्री ओमप्रकाश त्रिपाठी, सोनभद्र, उ. प्र. की मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थिती थी। 

प्राचार्य डॉ. शेख ने आगे कहा कि भारतीय संस्कृति में परिवार हमारे समाज की रीढ़ हैं। हमारी संस्कृति और सभ्यता में संयुक्त परिवार की उज्जवल परंपरा सदियों से चली आ रही हैं। परंतु आधुनिकता की अंधी दौड़़ में एकल परिवार की परंपरा सभी दृष्टि से घातक सिद्ध हो रही हैं। 

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज के महासचिव डॉ. गोकुलेश्वर प्रसाद दिवे्दी जी ने प्रस्तावना में कहा कि एकल परिवार में अंकुश न होने से वे युवा पीढ़ी परिवार मे हावी होती जा रही है। नारी समाज की नींव है। परिवार के विघटन से नारी अपनें कीमती धर्म और संस्कार को खोती जा रही हैँ। इसका प्रभाव अगली पीढ़ी पर हो रहा हैं। 

डॉ.सीमा वर्मा, लखनऊ ने कहा कि भारतीय संस्कृति में वसुधा को ही कुटुंब माना जाता हैं। संयुक्त परिवार मे एक मुखिया के नियंत्रण में पूरा परिवार रहता था। तीन-चार स्त्रियां एक साथ रहती थी। एकल परिवार मे बच्चों का बचपन विक्षिप्त होने लगा हैं। 

डॉ. अनसूया अग्रवाल, महासमुंद छ.ग. ने अपने उद्बोबोधन मे कहा कि टूटते परिवारों मे सद्विचारों और सद्भावनाओं का अभाव होता हैं। हर कोई मकान बनाने के धुन मे घर बनाने की नहीं सोचता। परिणामतः रिश्तों मे दरारें आती हैं। बच्चों का बचपन खोता जा रहा हैं। 

डॉ. प्रिया ए. कोट्टायम, केरल ने कहा कि बीतते समय से संयुक्त परिवार टूटते - टूटते लघुतम हो रहा हैं। एकल परिवार एक विडम्बना हैं। जिसमें स्वार्थी भावना पनप रही हैं। संवेदना शून्यता से संबंध शून्यता आ रही हैं।
   

डॉ. शबाना हबीब, त्रिवेंद्रम, केरल ने कहा कि बचपन जीवन का सुनहरा पल हैं। एकल परिवार के कारण बच्चों के मन से बड़ों का आदर सम्मान गायब हो गया हैं। विदेशी संस्कृति का प्रभाव इतना है कि मां - बाप बच्चों को डांटते हैं तो बच्चे माता - पिता को धमकी देते हैं। बढ़ती फ्लैट संस्कृति भी परिवार के टूटने का कारण हैं। 

प्राचार्य डॉ. रिया तिवारी, रायपुर छ. ग. ने मंतव्य में कहा कि हमारा अस्तित्व ही परिवार के कारण हैं। परंतु आज सर्वत्र परिवार विघटन की समस्या हैं। आधुनिकता की अंधी दौड़़ में हमें रुकनें की और पलट कर देखने की जरूरत हैं। 

डॉ. सुनीता यादव, औरंगाबाद, महाराष्ट्र ने कहा कि एकल परिवारों में आपसी संबंधों में सब कुछ परिवर्तित हो जाता हैं। आज मूल्य बदल गये हैं। पति बाहर जाता हैं तो बाहर का हो जाता हैं। परिवार मे संवाद धर्म होना भी जरूरी हैं,जो आज लुप्त प्राय है। टूटते परिवार मे बच्चों का बचपन बिखरकर संवेदना शून्य हो गया हैं। 

मुख्य वक्ता श्री ओमप्रकाश त्रिपाठी, सोनभद्र, उ. प्र. ने कहा कि संयुक्त परिवारों मे बच्चों की किलकारी से पूरा मोहल्ला गूँजता था। संयुक्त परिवार पारस्परिक संबंधों को जोड़ने में सफल था। एकल परिवार अनेक समस्याओं से ग्रसित हो रहा हैं। 

गोष्ठी की उतम नियंत्रक व संचालक डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक विश्व हिंदी साहित्य सेवा, संस्थान, हिंदी सांसद, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने संचालन का दायित्व निभाते समय कहा कि वर्तमान भारतीय समाज, टूटते परिवार और बिखरता बचपन इन दो मुख्य समस्याओं से जूझ रहा हैं। इसमें व्यापक सुधार की नितांत आवश्यकता हैं। 

आरंभ में  प्राध्या. श्रीमती लता जोशी मुंबई ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। श्री लक्ष्मी कांत वैष्णव, चांपा,छत्तीसगढ़ ने स्वागत भाषण दिया। जूम पटल पर आयोजित इस आभासी गोष्ठी में डां. रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने भी अपने विचार रखें। और प्राध्या. मनीषा सिंह मुंबई  सहित अनेक मान्यवरों ने अपनी उपस्थिति दर्शायी। सूर्यकांत भारद्वाज ने सभी का आभार व्यक्त किया।

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