शोध में गहन अध्ययन, परिश्रम, निरंतरता व गंभीरता हो : प्राचार्य डॉ. मधुसूदन सरनाईक
नागपुर/पुणे। शोध हमारे शिक्षा जगत से जुड़े सभी जनों के जीवन का अविभाज्य अंग है। अतः शोध में गहन अध्ययन, कठिन परिश्रम, निरंतरता व गंभीरता होनी चाहिए। इस आशय का प्रतिपादन श्री मुक्तानंद महाविद्यालय, गंगापुर के प्राचार्य डॉ. मधुसूदन सरनाईक ने किया।
मराठवाड़ा शिक्षण प्रसारक मंडल संचालित गंगापुर जिला- औरंगाबाद के श्री मुक्तानंद महाविद्यालय में ‘शोध प्रविधि और प्रक्रिया’ इस विषय पर आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला के उद्घाटक के रूप में वे अपना मंतव्य दे रहे थे।
इस अवसर पर मंच पर संस्था के केंद्रीय समिति सदस्य अधिवक्ता श्री लक्ष्मणराव मनाळ, प्राचार्य डॉ. शहाबुद्दीन शेख (पूर्व प्राचार्य, लोकसेवा महाविद्यालय, औरंगाबाद तथा कार्याध्यक्ष, नागरी लिपि परिषद नई दिल्ली), प्रो. डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा (कला संकाय अधिष्ठाता तथा कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन), डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक (ग्रेसियस कॉलेज, रायपुर, छत्तीसगढ़) तथा डॉ. अशोक गायकवाड (न्यू आर्ट्स, कॉमर्स व साइंस महाविद्यालय, अहमदनगर, महाराष्ट्र) आदि की प्रमुख उपस्थिति थी।
प्राचार्य सरनाईक ने आगे कहा कि शैक्षिक जीवन में प्रगति साधने की दृष्टि से शोध का विकल्प नहीं है। हिंदी शोध के पास एक शतक से अधिक समय की उज्ज्वल परंपरा है। शोध में मौलिकता होनी चाहिए। शोध कार्य कभी समाप्त नहीं होता, बल्कि उसे निरंतर जारी रखना चाहिए।
प्राचार्य डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने अपने मन्तव्य में कहा कि जिज्ञासा शोध का सबसे प्रमुख तत्व है। शोध में सत्यान्वेषण व नए तथ्यों की खोज आवश्यक होती है। शोध का उद्देश्य जीवन और जगत का उन्नयन है। शोध विकास का जनक है। अतः एक परिकल्पना लेकर शोध में प्रवेश करके और उसे तथ्यों से प्रमाणित करें।
प्रो. डॉ. अशोक गायकवाड, अहमदनगर ने अपने मंतव्य में कहा कि शोध की प्रक्रिया में वस्तुनिष्ठता, विश्वसनीयता, क्रमबद्धता, तार्किकता, यथार्थता, निष्पक्षता, प्रमाणिकता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि विशेषताओं का होना आवश्यक हैं।
डॉ मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि शोध एक नियंत्रित व्यवस्थित अध्ययन है। वास्तव में अनुसंधान का इतिहास लगभग उतना ही पुराना है जितना की मानव सभ्यता का इतिहास है। अनुसंधान का महत्व मानव ज्ञान भंडार को विस्तृत करना है। शोध से मानव व्यक्तित्व का अपार बौद्धिक विकास हुआ है।
प्रो.डॉ. शैलेंद्र कुमार शर्मा, उज्जैन ने अपने उद्बोधन में कहा कि किसी भी प्रकार का अनुसंधान मनुष्य की अविराम जिज्ञासा का प्रमुख अंग है। वास्तव में बिना तुलनात्मकता के सही मायने में शोध संभव नहीं है। क्योंकि मनुष्य निरंतर तुलना के माध्यम से सीखता है, अपने आपको प्रस्तुत करता है। अतः मनुष्य की अविराम यात्रा तुलनात्मक दृष्टि पर निर्भर करती है। तुलनात्मक शोध आविष्कार की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
प्रारंभ में कार्यशाला की संयोजक तथा हिंदी विभाग की अध्यक्षा डॉ. मीना खरात ने प्रास्ताविक भाषण दिया। मंच पर महाविद्यालय की उपप्राचार्या डॉ. वैशाली बागुल, डॉ. बी.टी. पवार, अंतर्गत गुणवत्ता आश्वासन प्रकोष्ठ के समन्वयक डॉ. विवेकानंद जाधव आदि की उपस्थिति थी।
गूगल मीट पटल पर प्राचार्य विश्वासराव काले, अहमदनगर, डॉ. नूरमुहम्मद शेख, नेवासा, डॉ. रश्मि चौबे, गाजियाबाद, डॉ. पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉ. मीना ढोले, पुणे, डॉ. संजय महेर, डॉ. माजिद शेख, औरंगाबाद डॉ शशिकांत 'सावन', अमलनेर, विभिन्न महाविद्यालय के हिंदी प्राध्यापक, शोधार्थी तथा हिंदी प्रेमी छात्र एवं छात्राओं सहित दो-सौ से अधिक प्रतिभागी सम्मिलित हुए थे।