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डायाबेटीक नेफ्रोपेथी - किडनी खराबी का प्रमुख कारण




डायबीटिक नेफ्रोपैथी
  डायबीटिक नेफ्रोपैथी  मधुमेह  के कारण होती है। मधुमेह का असर किडनी पर होता है, इसे डायबिटिक नेफ्रोपैथी कहते हैं।
 

ब्रिटिश चिकित्सक क्लिफोर्ड विल्सन और जर्मनी में जन्मे अमेरिकी चिकित्सक पॉल केमेस्टाइल ने 1936 में इस बीमारी की सबसे पहले खोज की थी, इसलिए डायबीटिक नेफ्रोपैथी को किमेलस्टील - विल्सन सिंड्रोम भी कहा जाता है। इस बीमारी में किडनी के अंदर मौजूद खून की नलियों के गुच्छे जिसे ग्लौमेरुलस कहते हैं, वह मोटी होने लगती है और इन से पेशाब में प्रोटीन निकलना चालू हो जाता है। 

जैसे-जैसे डायबिटिक नेफ्रोपैथी की बीमारी बढ़ती है, वैसे वैसे पेशाब में प्रोटीन का रिसाव ज्यादा मात्रा में होने लगता है और धीरे-धीरे जो ग्लोमेरुलस  नष्ट होते जाते हैं।इससे किडनी की कार्य शक्ति कम होने लगती है । एक समय ऐसा आता है कि किडनी पूरी तरह से काम करना बंद कर देती है । 

जैसा आप जानते हैं डायबिटीज के दो प्रकार होते हैं - टाइप 1 डायबिटीज और टाइप 2 डायबिटीज ।
 टाइप 1 डायबिटीज में शुरुआत के 15 सालों के अंदर डायबीटिक नेफ्रोपैथी के लक्षण दिखने लगते हैं और 30 साल से कम आयु के करीबन 40 % रोगियों को यह  प्रभावित करता है। 

टाइप 2 डायबिटीज में कई बार डायबिटीज के पता लगने के समय ही किडनी के खराबी के लक्षण दिख जाते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि मरीज को मालूम ही नहीं होता कि उन्हें डायबिटीज है और वह डायबीटिक नेफ्रोपैथी का शिकार हो जाते हैं।


 डायबीटिक नेफ्रोपैथी के लक्षण
 
सूजन खास करके सुबह के समय आंखों के पास और बाद में पूरे शरीर में सूजन हो सकती है। मूत्र में अधिक मात्रा में झाग जाना,  वजन में वृद्धि जो कि बदन में पानी ज्यादा जमने के कारण होती है,  भूख की कमी,  जी मचलना, उल्टी होना, अस्वस्थता, थकान, सिरदर्द,  हिचकी होना और खुजली का आना ईत्यादि।

जब परीक्षण किए जाते हैं तो पता चलता है कि पेशाब में प्रोटीन रिस रही है ब्लड में क्रिएटनीन और यूरिया बढ़ जाता है। किडनी बायोप्सी करने से इस रोग का पता चल सकता है। साधारणतः डायबीटिक नेफ्रोपैथी और आंखों पर डायबिटीज का असर यानी डायबिटिक रेटिनोपैथी साथ साथ चलते हैं। अक्सर मरीज के आंखों की रोशनी कम हो जाती है ।

डायबीटिक नेफ्रोपैथी का उपचार
 
सबसे पहले तो मधुमेह अच्छी तरह से कंट्रोल में होना चाहिए । HBA1C एक जांच है जिससे पिछले तीन महीने के ब्लड शुगर का पता चलता है । यह कोशिश की जानी चाहिए कि HBA1C 7% से कम रहे।

अगर पेशाब में प्रोटीन जाने की पुष्टि हो जाती है, तो कुछ दवाइयां जिन्हें ACE inhibitor  कहते हैं,  इनके इस्तेमाल से पेशाब में प्रोटीन जाना कम हो जाता है।
 
जैसे-जैसे किडनी खराब होती जाती है वैसे वैसे ब्लड शुगर कम होते जाता है। मरीज को शुरुआत में ऐसा लगता है कि उसकी डायबिटीज ठीक हो गई, लेकिन असल में उसकी किडनी खराब हो रही होती है।
 डायबिटीज कंट्रोल करने के लिए खाने पीने में कंट्रोल, दवाइयां और उचित कसरत करने की आवश्यकता है । ब्लड प्रेशर भी अच्छी तरह से कंट्रोल होना चाहिए। अगर डायबिटीज और ब्लड प्रेशर दोनों एक ही मरीज में हो , तो किडनी की खराबी तेजी से बढ़ती है। मधुमेह के मरीजों को चाहिए कि वह दर्द की दवाइयां ना लें क्योंकि इनसे किडनी को क्षति होती है।

कुछ आयोडीन युक्त दवाइयां रेडियोलोजी के जांचों में की जाती है , जो किडनी को नुकसान पहुंचाती है। इनका इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए। 
अगर मरीज को पेशाब में संक्रमण हो तो उसे उचित एंटीबायोटिक द्वारा इलाज किया जाना चाहिए।

डायबीटिक नेफ्रोपैथी बीमारी के बढ़ने पर किडनी खराब होने लगती है और एक समय ऐसा आता है, जब मरीज को डायलिसिस अथवा किडनी प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है।
हाल ही में बहुत से ऐसे दवाइयां विकसित किए गए हैं जो मधुमेह में शुरुआत में ही दिए गए तो डायबिटिक नेफ्रोपैथी से निजात पाया जा सकता है।

डायबीटिक नेफ्रोपैथी के मरीजों में कुछ और गंभीर बीमारियां हो सकती है जैसे दिल की बीमारी, नसों की बीमारी, गुर्दा फेल होना, बार बार ब्लड शुगर का कम होना, हाई ब्लड प्रेशर, आंखों में कम दिखना, हाथों और पांवों में झुनझुनाहट होना, इत्यादि ।

अगर हर कोई डायबिटिक मरीज ब्लड शुगर को अच्छी तरह कंट्रोल करें, चाहे वह भोजन से हो, कसरत से हो अथवा दवाइयों से हो तो डायबिटीज के होने वाले दुष्परिणामों से वह बच सकता है। आज के दिनों में किडनी के खराबी का प्रमुख कारण डायबीटिक नेफ्रोपैथी है।

- डॉ. शिवनारायण आचार्य
नागपुर (महाराष्ट्र)
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