शक कितना भी मजबूत और पुख्ता हो, सबूत की जगह नहीं ले सकता - सुप्रीम कोर्ट
भारतीय नागरिकों के लिए न्यायपालिका न्याय का मंदिर - एड किशन भावनानी
गोंदिया - भारतवर्ष जहां एक आध्यात्मिक आस्था वाला देश है, वहीं भारतीय नागरिकों पर किसी भी क्षेत्र में यदि कोई समस्या, अन्याय या ज्यादिती महसूस करते हैं, चाहे वह किसी संबंधित दूसरे पक्ष द्वारा हो या फिर कार्यपालिका द्वारा हो, वह न्यायपालिका की तरफ बढ़ी उम्मीद व विश्वास के साथ देखते हैं और पूरी उम्मीद के साथ विश्वास रखते हैं।
क्योंकि भारतीय नागरिकों के लिए न्यायपालिका न्याय का एक मंदिर है। हमने बड़े बुजुर्गों से सुना था चाहे सौ गुनाहगार छूट जाएं पर एक निर्दोष को फांसी नहीं होना चाहिए। यही मंजर हम आज भी देखते हैं कि न्यायिक प्रक्रिया की अनेक प्रोसेस या स्तर होते हैं जहां स्टेप बाय स्टेप हर नागरिक को अपील करने का अधिकार होता है याने, जेएमएफसी कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट, जिला उपभोक्ता विवाद निवारण न्यायालय से लेकर राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग तक, और अन्य किसी आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हर नागरिक को पर्याय, विकल्प होते हैं अंतिम दम तक न्याय के लिए अपने अधिकार उपयोग करने का।
सबसे बड़ी बात भारत के हर नागरिक के पास भारतीय संविधान है और उसके अनुच्छेदों में हर प्रकार की रक्षा व सुरक्षा है।.... इसी मुद्दे पर आधारित एक मामला शुक्रवार दिनांक 12 फरवरी 2021 को माननीय सुप्रीम कोर्ट में माननीय 2 जजों की बेंच जिसमें माननीय न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी तथा माननीय न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की बेंच के सम्मुख स्पेशल लीव पिटिशन (क्रिमिनल) क्रमांक 1156/ 2021 स्टेट ऑफ ओडिसा बनाम प्रतिवादी और अन्य के रूप में आया, जिसमें माननीय बेंच ने अपने 15 पृष्ठों और 40 पॉइंटों के आदेश में कहा कि न्यायिक प्रणाली में यह एक निर्धारित है कि शक कितना भी मजबूत और पुख्ता क्यों ना हो,
परंतु वह सबूतों का स्थान नहीं ले सकता और यह पूर्व के अनेक निर्णय में भी दोहराया गया है और ओडिशा राज्य द्वारा दाखिल स्पेशल लीव पिटिशन को खारिज कर दिया और आरोपियों को बरी कर दिया आदेश कॉपी के अनुसार बेंच ने कहा है कि चाहे कितने भी पुख्ता आधार वाला शक क्यों नहीं हो, किसी सबूत की जगह नहीं ले सकता है। एक सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने इस बात पर भी जोर दिया कि एक आरोपी तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक उसे वाजिब शक से परे दोषी साबित नहीं कर दिया जाता।
माननीय बेंच ने इस टिप्पणी के साथ हत्या के एक मामले में आरोपियों को बरी करने के ओडिशा हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया। शीर्ष अदालत ने कहा, आरोपी तब तक निर्दोष, जब तक उसे दोषी साबित नहीं किया जाता दरअसल, ओडिशा हाईकोर्ट ने एक होमगार्ड को बिजली का करंट देकर मार डालने के दो आरोपियों को बरी कर दिया था। बेंच ने कहा, ऐसे मामले में सबूतों की पूरी श्रृंखला होनी चाहिए है, जो दिखाए कि सभी मानवीय संभावनाओं के तहत आरोपियों ने ही अपराध किया है। इस श्रृंखला में किसी भी ऐसे निष्कर्ष के लिए संदेह नहीं रहना चाहिए, जो आरोपी को निर्दोष मानने की संभावना दिखाता हो।पीठ ने कहा, इस अदालत के कई न्यायिक फैसलों से यह अच्छी तय किया जा चुका है कि संदेह कितना भी पुख्ता हो, लेकिन वह सबूत का स्थान नहीं ले सकता है। एक आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि उसे उचित संदेह से परे दोषी साबित न कर दिया जाए।
पीठ ने कहा,पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बिजली के झटके से मौत की पुष्टि हुई है, लेकिन इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं है कि यह हत्या थी। बात के रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का हवाला देते हुए कहा कि पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर ने इस बात की प्रबल संभावना जताई है कि मृतक शराब के नशे में था और हो सकता है कि उसने सोते समय गलती से विद्युत तार को छू लिया हो। पीठ ने कहा, अभियोजन आरोपियों को दोषी साबित करने में फेल रहा है।
इस कारण ट्रायल कोर्ट का उन्हें बरी करने का फैसला सही है। मृतक की पत्नी ने लगाया था आरोप मृतक की पत्नी की तरफ से दर्ज एफआईआर में बताया गया था कि उसका पति पुलिस थाने में होमगार्ड के तौर पर कार्यरत था। पत्नी ने आरोप लगाया था कि आरोपियों और अन्य लोगों ने उसके पति को जहरीला पदार्थ खिलाने के बाद बिजली का करंट देकर हत्या कर दी।
इसी प्रकार के एक अन्य केस के संबंध में सोमवार दिनांक 1 मार्च 2021 को एक आदेश में माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी टिप्पणी की और दो अभियुक्तों को डिस्चार्ज करते हुए टिप्पणी की कि जिस प्रकार सौ खरगोश से आप एक घोड़ा नहीं बना सकते इसी तरह सौ शक मिलाकर भी आप एक प्रमाण नहीं बना सकते।
संकलनकर्ता कर विशेषज्ञ
- एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी
गोंदिया महाराष्ट्र