Loading...

व्यथा...

- वीना आडवाणी, नागपुर, महाराष्ट्र

जन्म दिया जिस मां ने तुमको 
उसकी हम आज व्यथा सुनाऐ
पीड़ा देते नित नित उसको
जो तुम्हरे घर मे समाऐ।।

आज समाज की देखो ये व्यथा
मंदिर मे है शीश झुकाऐ।।

घर की मां को घर ना दिये तुम 
वृध्दावस्था मे वृध्दाश्रम दिखाऐ
बाहर से लाऐ मां की तुम मूरत
उसे मंदिर मे सजाऐ।।

आज समाज की देखो ये व्यथा
मंदिर मे है शीश झुकाऐ।।

घर मे मां को ना भोजन दिया
मंदिर मे वक्त पे दीप जलाऐ
भूख मे तड़पत है मां घर की
मंदिर मे मालपुआ चढ़वाऐ।।


आज समाज की देखो ये व्यथा
मंदिर मे है शीश झुकाऐ।।

देखो कपड़े मां का मैले कुचेले
फटे पुराने तन पे समाऐ।
मंदिर मे जाके तुम ओ मानव
मां को तुम आज नवीन चुनर ओढ़ाऐ।।

आज समाज की देखो ये व्यथा
मंदिर मे है शीश झुकाऐ।।

निर्दयी, निर्लज्ज, निरमोही तुम कैसे
कलयुगी आज पुत्र कहलाऐ।
मां का ऐनक टूटा पढ़ा कहे पैसे नही हैं
मंदिर मे माता को श्रृंगार चढ़ाऐ।।

आज समाज की देखो ये व्यथा
मंदिर मे है शीश झुकाऐ।।

देखो आज कैसा असभ्य समाज है
बेटा ही बना हर ओर पिशाच है।।
दूजों की बेटियों को हर करे शिकार
कैसा दुष्ट ये बेटियों का संहार है।।

आज समाज की देखो ये व्यथा
मंदिर मे है शीश झुकाऐ।।

कहतें हैं वेद बेटी, मां, बहन माता का रुप
माता के रूप पे ही हर पल वार है।।
आज फिर क्यों पिशाची दानव मानव
माता का करे क्यों यू सतकार है।।

आज समाज की देखो ये व्यथा
मंदिर मे है शीश झुकाऐ।।

घर मे मां भूखी है सोच तेरा
फर्ज़ है फर्ज़ निभाना।।
मां खुश होगी ढर की तेरी
तभी माता का तू आशिष पाना।।

आज समाज की देखो ये व्यथा
मंदिर मे है शीश झुकाऐ।।

काव्य 1205129022877145995
मुख्यपृष्ठ item

ADS

Popular Posts

Random Posts

3/random/post-list

Flickr Photo

3/Sports/post-list