बसंती बुआ
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यह सृष्टी सुख व दुःखों के ताने बाने से बुनी हुई है। यह हम सब जानते हैं। और यह भी कि किसी की भी झोली में नतो हमेशा सुख होते हैं, न हमेशा दुःख। फिर भी जब हमारे जीवन में कोई दुःख, कष्ट अभाव आते है तो हम यह भूल जाते हैं कि ईश्वर ने हमें बहुत सुख भी दिए हैं, और एक दुःख पर हम अपने अनेक सुख कुर्बान कर देते हैं। परंतु बसंती बुआ ऐसी नहीं थी। ईश्वर ने उन्हें धन दौलत, जमीन जायजाद, खेती बाडी़ से ही संपन्न नहीं बनाया था, एक समझदार जीवन साथी भी दिया था। बस नहीं दिया तो केवल एक संतान का सुख।
किंतु पति पत्नी दोनों ने इसे ईश्वर की ईच्छा मान सहज स्वीकार कर लिया था। व सुख चैन से जीवन बसर कर रहे थे। कुछ वर्षों पश्चात अचानक उन्हे एक बडा़ ही दुःखद समाचार मिला। फूफाजी के बहनोई के अवसान के। बहन न तो पढी़ लिखी थी और न ही घर से संपन्न। तीन बच्चों का पालन पोषण अत्यंत कठिन था। ऐसी कठिन स्थिति में बसंती बुआ व फूफाजी ने बहन को तीनों बच्चों के साथ अपनाया। व नकूवल घर में अपितु उन्हें अपने ह्रदय में भी स्थान दिया। तीनों बच्चों को पढा़या। व बेटी का विवाह कर कन्यादान का पुण्य भी कमाया। कुछ समय बाद बेटे को अपना उत्तराधिकारी बना चल बसे। कपति की मृत्यु के बाद भी बुआजी ने तीनों बच्चों को वैसा ही प्यार दिया। एक माँ की तरह। और बच्चों ने भी उनकी सेवा सुश्रुआ, देखभाल अच्छी तरह की। यह न केवल गांव के लोगों के लिए अपितु आसपास के लोगों के लिए भी एक उदाहरण, एक प्रेरणा बन गई थी। पूरे सौ वर्ष के सुखी जीवन के पश्चात आज बसंती बुआ की मृत्यु के समाचार सुनकर मन श्रद्धा से भर गया। अपने जीवन की एक कमी को, पतझड़ को बसंती बुआ ने वसंत में बदलकर सच में अपना नाम सार्थक कर दिया।
प्रभा मेहता, नागपुर (महाराष्ट्र)