धुआँ धुआँ ये ज़िंदगी
चारों ओर मायूसियाँ
ये कैसी छाई हैं??
गली-चौबारे सूने-सूने,
स्याह रातों की झाई है,
हवा ये जाने कैसी चली है,
नज़र तो देखो किसकी लगी है!
धुआँ-धुआँ ये ज़िंदगी,
धुँधली हो चली है!
नशे के ज़हर को पीते-पीते,
मीठे पानी के समन्दरों में भी,
गंध अज़ब-सी आयी है!
किसने छेड़ी धड़कनें सँस्कृति की,
साँसे भी अब डगमगाई हैं!
चरस,गांजा या हो कोकीन,
ज़हर बना है खून रगों में,
ऊँची शानों के युवा हैं शौकीन!
तरक्की की मिसालें देने वाले,
कर रहे खुल कर नशे का व्यापार!
कैसे बदलेंगे देश के हालात?
ऐसे बदलेंगे क्या जीने के अंदाज़ ?
दीमक नशे की पाँव अपने पसारती जाती,
ग्रास बना कर जाने कितनी,
ज़िन्दगानियाँ पल में उजाड़ती जाती!
नहीं धर्म नशे का कोई,
ना कोई ईमान,
मान-सम्मान सब गया हाथ से,
शरीर भी अब हुआ बेजान!
इतनी सस्ती है नहीं ये ज़िंदगी,
उठ कर सँवारो इसे,
यूँ धुएँ में ना जलाओ इसे!
औंधे पड़े हैं रेत के घरौंदे,
चलो मिलकर ढूँढें साहिल के निशान!
नया फिर इक़ सवेरा होगा,
और होगा -----
मेरा "नशामुक्त हिंदुस्तान" !
- सीमा चोपड़ा
दाहोद, गुजरात