मेरा घर...
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- प्रभा मेहता, नागपुर, महाराष्ट्र
मीना, मीता, मंजु और मधु
बचपन में जब सब सहेलियां साथ मिलती
बात खेलों की होती
लुका छिपी, नदी पहाड़
गुड्डे गुड्डी का ब्याह,
से बात होते होते
घर घर के खेल पर ठहर जाती।
फिर किसके घर, किसके घर ?
मेरे घर मेरे घर को लेकर
सब आपस में झगड़ती।
घर घर खेलते खेलते
वेकब सयानी हुई
यह अम्मा की बातों से जाना।
वे कहतीं-----
अब तुम बडी़ हो गई हो,
यह शोभा नहीं देता
ये मत करो,वो मत करो,
संध्या समय खर लौट आओ
ऐसे कपडेध मत पहनो।
अपने घर जाकर चाहे जो पहनना,
जैसा चाहे रहना
फिर एक दिन डोली उठ गई
सब अपने, अपने ससुराल गई।
वहां जाकर समझ में आया
माँ ने जिसे अपने घर जाकर
करने को कहा था
वहां वही करना होता था
जो वे कहते थे
सब सहना होता था,
जो सब कहते थे
उनकी करते,करते
जवानी बीत गई।
प्रौडा़वस्था आई,
बच्चे बडे़ हुए
पढ़लिखकर समझदार हुए
नये जमाने के नए आचार विचार
नए संस्कारों से संपन्न हुए,
मां तुम ईतनी जल्दी क्यों उठ जाती हो ?
टी. वी. जोर से मत चलाओ,
रिमोट इन्है दे दो
यहां मत बैठो, फ्रेंड्स आने वाले हैं
जरा जल्दी खालो, बाहर जाना है।
माँ समझ गई, यहांऊठना बैठना,
सोना खाना,सब बच्चों की
मर्जी से करना होता है।
अब ढलती उम्र मेन
जीवन के इस सत्य को समझा
जाना, महसूसा ,कि बचपन में
जिसे वे मेरा घर, मेरा घर कहकर
आपस में झगड़ती थी
वास्तव में वह पिता का घर था।
लड़की पराया धन होती है
पिता के घर मेहमान होती है
तब सुना था, अब समझी।
और जवानी में जिसे,
मां ने अपनू घर जाकर करने को कहा था,
घर से खुशी खुशी बिदा किया था
वह पति का घर था।
और अब ढलती उम्र में
जिसे वह अपना घर,
समझ बैठी थी
वह भी कहांउसका घर था ?
घर तो वास्तव में
पिता ,पति और पुत्रोंका होता है
स्त्री का घर तो घर घर के
खेल खेल में ही होता है।
खेल खेल में ही।