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ज़िंदगी बची रहे...

- प्रमिला शर्मा, मुंबई

बहुत भटके हो, कुछ समय तक ठहर जाओ,
कि बात मानो घर से बाहर तुम नहीं जाओ।

नहीं संयम रखोगे बाहर अगर जाओगे,
साथ में अपने जानलेवा शै ले आओगे।

वो जो आ गया तबाही यूँ  मचाएगा,
अपने चंगुल में कसेगा और निगल जाएगा।

शातिर बहुत है उसकी चाल है एकदम से नई,
पकड़ में आया नहीं पीछे लगे जबकि कई।

उसके साथ करना भूलकर भी होड़ नहीं,
क्योंकि उसके पैंतरे का कोई तोड़ नहीं।

उसके मुँह हैं कई, हाथ कई, पैर कई।
कई देशों में गया और जानें ले ली कई।

न रहम करता है न तरस उसे आता है,
सभी से एक जैसी दुश्मनी निभाता है।

बड़ों को बूढ़ों को वह बख्शे नहीं बच्चों को,
नाच नचा दिया है उसने अच्छे अच्छों को।

न उसकी जाति कोई, न ही कोई धर्म उसका,
मौत के मुँह में डाल देना ही है कर्म उसका।

ऐसा कुछ करो मत कि पड़े फिर ताउम्र रोना,
ज़िंदगी बची रहे वहीं काम तुम करो ना।

काव्य 4478101096946366111
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