स्लीपर क्लास बेनाम जनरल बोगी
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उफ्फ़-- उफ्फ़--उफ्फ ये कैसी विडम्बना है, क्या बताऊॅं कैसे बतआऊॅं अपने उस अनुभव को जो वक्त दर वक्त दयनीय से महादयनी बनता ही जा रहा था , नहीं था ये सफ़र पहले इतना दयनीय पर अब क्यों मैं इतनी पीड़ा से भर गई थी । जिस कड़वे अनुभव से मैं गुज़र रही थी लग रहा था कि कम से कम मैं इंसानियत और साहित्यकार होने के नाते अपना कर्तव्य निभाऊॅं अपनी पीड़ा को लिख कर ताकि कोई इस पीड़ा से नहीं गुज़रे। बस एक उम्मीद लिये लिख रही हू, शायद मेरे लिखने के निभाए कर्तव्य को पढ़कर आज नहीं तो कल कुछ चमत्कार हो और भारतीय रेलवे के कानों पर कुछ जूँ रेंग सके और उन्हें अनुभव संग यह एहसास करने का अवसर जरूर प्राप्त हो । खैर मेरे लिखने से तो कुछ भी नहीं होगा फिर भी एक चमत्कार भरे बदलाव की उम्मीद लिये मैं लिख रही हूँ, क्या करू साहित्यकार हूं ना खुद को अपना कर्तव्य निभाने से रोक भी नहीं पाई इसलिए मैंने अपनी व समस्त यात्री जो स्लीपर क्लास में सफर कर रहे थे लिखने बैठ गई।
मैं उन सभी का दर्द तो आइए जानिए पढ़ कर मेरे हर एक उस कमर के दर्द की पीड़ा को जो मुझे रात 3 बजे 30/1/24 के दिन नींद से उठा कर लिखने पर विवश कर बैठा। जी हॉं बिल्कुल सच कह रही हूं रात को 3 बजे मैं स्लीपर क्लास में बैठकर जैसे-तैसे ये लेख लिख अपनी गुहार ऊपर तक जाने की उम्मीद से लिख रही हू। चलिए अब मैं अपनी पीड़ा से मिलवाती हू। वो भी विस्तार से ।
हम सभी परिवार के सदस्य बेटी की बारात लेकर अपने गंतव्य स्थान से लंबा सफर तय कर अहमदाबाद पहुंचे और बाद में अहमदाबाद से हम सभी लंबा सफर तय कर भोपाल पहुंचे। सफ़र लंबा था और हम सभी बाराती थे इसलिए तीन महिने पहले ही सभी की टिकट करवाली स्लीपर क्लास में सभी टिकट आरक्षित थी।
सभी खुश थे की चलो चाहे जाते समय या आते समय किसी को कोई असुविधा नहीं होगी सभी की बैठने की सीट आरक्षित है। सफ़र सभी संग बहुत सुकून संग हसते गाते बीतेगा । अरे भाई! आखिर बाराती थे हम तो खुशी तो होगी ही ना। अरे पर ये क्या ! जब हम अपने निर्धारित कोच में चढ़े, सामान चढ़ाने से लेकर रखने तक की जगह बनाने में हमें आधे घंटे से भी अधिक समय लग गया। पर क्यों ? कैसे ? सीटें तो आरक्षित थी फिर ऐसा क्या हुआ की इतना अधिक समय लग गया जो कि नहीं लगना चाहिए था ? आपके दिल-दिमाग में यही सवाल उठ रहे ना जैसे की मेरे दिल दिमाग में इस समय उठ रहे। बताओ भाई बताओ क्यों ?
चलो अब बता ही नहीं, मिलवा भी देती हूं। हमारी ही नहीं बल्कि उन सभी लोगों की पीड़ा जो भारतीय रेल को जनरल डब्बे वालों से अधिक अपनी कमाई का अंश दे अपने सुख की उम्मीद रख अपनी यात्रा के दौरान कोई कष्ट नहीं हो यही सोच दो से तीन माह पूर्व ही अपनी सीट आरक्षित करवाते हैं। पर जब वो निर्धारित सफर की पहले से कोच व सीट पर जाने के लिए अभी डब्बे के समीप जाते ही है अरे मेरा मतलब है डब्बे के पास तो ये क्या देखने को मिलता उन्हें। स्लीपर क्लास कोच का माहौल बिल्कुल जर्नल क्लास की तरह है। अंदर पैर रखने तक की जगह भी नहीं है। एसा क्यों ? यही सवाल उठ रहा है ना अब आप सभी के मन में? तो एसा इसलिए है कि इस भारतीय रेल के आरक्षित कोच को बदनाम करने में मुख्य भूमिका जो निभा रहे हैं वो भारतीय रेल के ही मुलाज़िम अर्थात टीटी बाबू ही हैं।
जिनके जेब मे कुछ अतिरिक्त अंश चला जाए और अतिरिक्त अंश से उनके बंगले बन सकें या तो कोई ओर ख्वाहिश पूरी हो सके जिसके चलते टीटी बाबूओं कि सोच यही होगी भाड़ में जाएं आरक्षित सीट वाले हमें क्या करना है हमें तो ऊपर का अंश मिल रहा ना अपने आप निपटें वो अपनी सुविधा असुविधाओं से। क्यों सही सोच रही ना मैं ? हॉं अगर कोई टीटी बाबू मेरा लिखा ये लेख पढ़ेगा तो वो यही कहेगा खुद की अंतरात्मा से बतियाते हुए की इसने तो मेरी ही पोल खोल के रख दी है पर वो खुद के मुंह से नहीं कहेगा की वो भी लालच के दलदल में किसी के साथ खिलवाड़ कर रहे। अरे किसी के साथ क्या! ये तो आरक्षित सीटों वालों से ही खिलवाड़ कर रहे हैं।
अब जानिए की कैसे आरक्षण कोच की असुविधाओं का सामना करना पड़ता है और कैसे अतिरिक्त अंश कमा कर ये आरक्षित कोच को ही जनरल कोच में तब्दील कर रहे हैं।
हुआ ऐसा की आरक्षित कोच में इतने अधिक जर्नल कोच के यात्री सफर कर रहे थे कि बता नहीं सकती आपको , बाथरूम के दरवाजे तक आरक्षित कोच के भीतर खड़े जर्नल कोच के यात्रियों ने जैसे छुपा ही दिया था , रात को मैं इस समय उठी तो मुझे अपनी निर्धारित सीट से बाथरूम तक जाने में ही पॉंच मिनट लग गये । जर्नल कोच के लोग जैसे ही आरक्षित सीट वाले सोने के लिये अपनी सीट पर गये जिसको जहॉं पर जगह मिली फर्श पर चादर बिछा कर सो गये जो कि बिना टिकट के यात्रा कर रहे थे या तो कुछ जर्नल कोच की टिकट लेकर आरक्षित कोच में बस टीटी को कुछ अंश देते और टीटी भी उसे छूट दे देता है आरक्षित कोच में रहने की। अब आप बताओ कोई आरक्षित कोच का व्यक्ति, फर्श पर पॉंव भी कैसे रखे।
नीचे पॉंव रखने पर उसे ये डर लगता की किसी जर्नल कोच के सफर करने वाले व्यक्ति जो आरक्षित कोच में घुस आए उनके कहीं हाथ या पॉंव के ऊपर हमारा पॉंव ना आ जाए। पता है इन सभी असुविधाओं से अवगत सिर्फ और सिर्फ भारतीय रेल के मुलाज़िम टीटीयों के किंचित मात्र लालच के कारण होता है। हमारे कोच में आरक्षित सीट पर सफर कर रहे एक सह यात्री जो कि अहमदाबाद से जबलपुर की ओर जा रहे थे ने बताया कि टीटी बाबू जी जर्नल कोच वालों से जो बाथरूम तक का रास्ता रोक कर खड़े हैं उनसे पॉंच-पॉंच सौ रूपये ले रहे और कह रहे यहॉं साईड में खड़े हो जाओ। अब बताओ किसको दोष दूं। टीटी को या भारतीय रेल की लापरवाही जिन्होंने सख्त कानून नहीं बनाए । मान लीजिए जिन जर्नल कोच के यात्रियों या बिना टिकट वाले को टीटी ने छूट दे दी किसी को आरक्षित कोच में खड़े-खड़े या बाथरूम के पास ही बैठकर सफर करने की और उनमें से कोई यात्री घातक हथियार लेकर अवैधानिक मकसद से सफर कर रहा हो मतलब मेरा की चोरी , डकैती वगैरह तो कौन जिम्मेदार होगा।
बचपन में जब मैं स्लीपर क्लास में सफर करती थी तो कोई ना कोई पुलिस कांस्टेबल या अधिकारी आरक्षित बोगी के आस पास वाले कोच में होता ही होता था ताकी कोई भी संदेहास्पद लगे तो उस पर नजर रखी जा सके पर आज के वक्त में दूर दूर तक किसी भी पुलिस कांस्टेबल या अधिकारी का नामों निशान भी नहीं था। इस सफर से एक सीख मिली मुझे कि भारतीय रेल में सिर्फ अब पैसे कमाना ही उद्देश्य हो गया है। यात्री सुरक्षा नहीं। शायद यह लेख या मेरी उठाई आवाज़ जो कि चीख-चीख एक ही सवाल पूछ रही भारतीय रेल व उन सभी आला अधिकारियों से सरकार से भी , किसी के माध्यम से ऊपर तक जाए और कोई सख्त कदम उठाया जाए । भारतीय रेलवे जिसे मैं कभी देश की शान बताती थी, परंतु आज इसी भारतीय रेलवे के स्लीपर ख्याल को खतरे में जान बताती हूं।
- वीना आडवाणी ‘तन्वी’
नागपुर, महाराष्ट्र